विरह
उनके विरह की रात अब , कटती नहीं मैं क्या करूँ। प्रिय मिलन की आस लिए , जगती रही मैं क्या करूँ। बिंदी सजा के कैसे लगूं ,कोई न देखे मन व्यथा। बेला कली भायी नहीं ,चुभती रही मैं क्या करूँ। वेणी सजा ली केश में, प्रिय के विरह,के फूल से। अब दंश बन चूसे मुझे ,खिलती रही मैं क्या करूँ। चूड़ी चुभे कंगन चुभे , श्रृंगार भी भाते नहीं। पायल बजे गम्भीर स्वर, छलती रही मैं क्या करूँ। संगीत की धुन नहिं लुभाती, साज भी, सजते नहीं। इस पीर में पीड़ा घुसी ,मन खुश नहीं मैं क्या करूँ। आँखे व्यथित थी देखकर ,उस दिन विदा होते हुए। मेरे लिए तड़पन लिखा , ये ही सही मैं क्या करूँ। स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह' 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿