सेवाधर्म



  देशभक्ति दिखाने का कौन सा एक तरीका होता है। जिस तरह मनुष्य चाहे, देश के प्रति अपने प्रेम को सिद्ध कर सकता है।

  प्रेम कोई भी आसान नहीं होता है। न तो नायक और नायिका का प्रेम और न ही देश के प्रति प्रेम। प्रेम हमेशा बलिदान चाहता है। सिद्ध करना होता है कि प्रेमी प्रेम के लिये योग्य है भी या नहीं। फिर देशप्रेम तो प्रेम की सर्वोच्च अवस्था है। इसके लिये बहुत खोना होता है।

   पूणे के एक प्रसिद्ध टीवी अस्पताल के प्रसिद्ध चिकित्सक डाक्टर कौस्तुभ  ज्यादा उदास थे। कोई एक दुख था जो उन्हें मन ही मन परेशान कर रहा था। कोई निर्णय ले पाने में वह खुद को असमर्थ पा रहे थे।

  वैसे देखा जाये तो डाक्टर को किसी तरह की परेशानी नजर नहीं आती। एक अच्छा व्यक्तित्व, अच्छी आय, अच्छा रुतबा और सबसे अलग एक प्रेम करने बाली माशूका सब कुछ तो था उनके पास। एक सुखी व्यक्ति को और क्या चाहिये। जो जो सुखी व्यक्ति के मापदंड हैं, वे सब उन्हें प्राप्त थे। फिर भी यह सत्य न था। एक अनोखी चिंता उनके मन को दग्ध कर रही थी। 

   वैसे तो एक चिकित्सक का जीवन ही सेवा का पर्याय कहा जाता है। मानव सेवा ही राष्ट्र की सेवा है। सेवा करना ही एक चिकित्सक का धर्म है। 

   सैद्धांतिक रूप से ये सब बातें सही लगती हैं। पर डाक्टर कोस्तुभ जानते थे कि वास्तविकता कुछ अलग है। उनका सेवा प्रदाता अस्पताल भले ही सेवा का दंभ कितना भी भरे पर यह पूर्ण सत्य तो नहीं है। यदि यही सत्य होता तो धनाभाव में किसी मरीज को इलाज देने से मना क्यों किया जाता है। सेवा का मूल्य से क्या संबंध। मूल्य लेकर की गयी सेवा तो वास्तव में सौदा ही है। सेवा तो नहीं। सेवा तो अंतिम समय तक किया गया प्रयास है। 

  निश्चित ही धनी मूल्य देकर इलाज करा लेते हैं। पर सेवा तो वही है जिसमें एक निर्धन का इलाज भी बिना किसी भेदभाव के हो सके। यह विख्यात अस्पताल सेवा का केंद्र तो नहीं। 

  डाक्टर खुद की सेवा मंजिल तलाशना चाहते थे। इसके लिये उन्हें बहुत खोना था। एक प्रतिष्ठित अस्पताल में अच्छे वेतन पर कार्यरत डाक्टर कौस्तुभ कुछ अलग ही करना चाह रहे थे। पर निर्णय लेने का साहस नहीं कर पा रहे थे। कारण शुचिता के प्रति उनका असीम प्रेम। 

   
शिचिता भारतीय लड़कियों की तुलना में कुछ ज्यादा लंबी, एकदम गौरी, नीली आंखों बाली तथा श्वेत केशों बाली किसी भी तरह से भारतीय तो न लगती, सिवाय नाम के। 

  सत्य भी यही था। शुचिता भारतीय न थी ।रूस की एक लड़की जो बहुत अच्छी नर्स थी, डाक्टर कौस्तुभ को एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में मिली थी। वह डाक्टर को अपना हृदय अर्पित कर चुकी थी। उसी टीवी अस्पताल में नर्स के रूप में सेवा देने आ गयी। भारतीय नाम और भारतीय परिधानों के बाद भी आसानी से पहचानी जा सकती थी। 

  शुचिता ही डाक्टर की परेशानी की मुख्य बजह थी। वह खुद तो अभावों में जीते हुए सेवा धर्म निर्वाह कर लेंगें पर क्या शुचिता ऐसा कर पायेगी। वैसे भी एक विदेशी लड़की से बहुत ज्यादा उम्मीद तो नहीं की जा सकती है। 

  पर शायद डाक्टर गलत थे। शुचिता जो प्रेम में खुद के देश, धर्म, मान्यता और वास्तविक नाम सभी को छोड़ चुकी थी, कुछ भी करने में सक्षम थी। सच्ची प्रेम साधिका मानवता की राह में भी डाक्टर को अकेले तो नहीं छोड़ेगी। 

  आखिर वही हुआ। डाक्टर अस्पताल से त्यागपत्र देकर अपने गृहनगर मैसूर आ गये। वहीं निर्धन रोगियों की सेवा का व्रत लेकर। तो शुचिता भी वहीं आ गयी। डाक्टर के समझाने पर भी अपने निर्णय से नहीं डिगी। 

  डाक्टर कौस्तुभ ने शुचिता से विधिवत विवाह कर लिया। अब मानवता की सेवा में दोनों साथ थे। 

   वर्ष दर वर्ष निकलते गये। मानव धर्म की राह में चलते हुए उन्हें कभी भी अपने फैसले पर उन्हें दुख न हुआ। एक बहुत साधारण जीवन जीकर भी रोगियों की सेवा करते रहे। तथा यह सेवा वास्तविक सेवा थी। 

  इसके बाबजूद एक दुख उनके जीवन में था। डाक्टर कौस्तुभ और शुचिता संतान सुख से वंचित रहे। 

  अनेकों वर्ष बीत गये। डाक्टर कौस्तुभ मैसूर में गरीबों के मसीहा बन गये। एक रोज जब वह अपना चिकित्सालय खोल रहे थे तो क्लीनिक की सीढियों पर एक बीमार बालक को देख ठिठक गये। 

   बालक बहुत बुरी तरह से बीमार था। पर उसके साथ कोई अभिवावक नहीं। बालक कुछ भी सही बता पाने असमर्थ था। 

   बालक टीवी की उस उच्चतम अवस्था से ग्रसित था, जिसमें किसी का बचना भी असंभव है। शायद यही सोचकर बच्चे के अभिवावक उसे क्लीनिक की सीढियों पर छोड़ गये। 

   डाक्टर कौस्तुभ और शुचिता के जीवन में उस बच्चे का आगमन उसी तरह हुआ जैसे कि कर्ण का आगमन सूत अधिरथ और उनकी पत्नी राधा के जीवन में हुआ था। 

  डाक्टर कौस्तुभ की चिकित्सा और शुचिता की सेवा रंग ला रही थी। साथ ही साथ निःसंतान दंपति के मन से निःसंतानता के कष्ट को नष्ट भी कर रही थी। शायद यह भी एक मोह है। दोनों भूल गये कि जिस तरह अस्वस्थ होने पर बालक को कोई उनके चिकित्सालय पर छोड़ सकता है, उसी तरह बालक के पूर्ण स्वस्थ होने पर वापस भी मांगने आ सकता है। प्रेम की डोर कभी भी टूट सकती है। 

  बालक पूर्ण स्वस्थ हो गया। फिर वही हुआ जिसका डाक्टर दंपति ने कभी अनुमान न किया था। निर्धनता में बालक को त्यागने का कार्य करने बाली बालक की माॅ आ गयी। रो रोकर बालक की याचना करने लगी। 

  माॅ के आंसू झूठ न थे। फिर भी डाक्टर कौस्तुभ ने अपने तरीके से सत्य पता किया। जिसे अपना भावी पुत्र समझ रहे थे, वह अपनी माॅ के साथ चला गया। 

  शुचिता डाक्टर कौस्तुभ के कंधे से लग गयी। अपने मन में उभरते शोक को मन में ही दबाने का प्रयास करती रही। फिर आंसुओं का एक सैलाब निकला। 

   दूसरे दिन से डाक्टर कौस्तुभ और शुचिता फिर से अपने कर्तव्य पथ पर चल दिये। सेवा धर्म कभी भी किसी के व्यक्तिगत दुखों को नहीं देखता है। पुरानी बातों को भूलकर फिर से आगे बढना ही तो सेवा धर्म है। और यही एक डाक्टर दंपति का देश प्रेम। 

सत्य घटना पर आधारित 
समाप्त 
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'

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