तेरे इश्क में



बचपन से लेकर जवानी तक।
तुम्हें सताने की मनमानी तक।

श्रेष्ठता का भाव मेरे अंदर था।
जलन का बहुत बड़ा समंदर था।

बिन बात तुम्हे नीचा गिराता हुआ।
हर बात पे तुम्हें रुलाता हुआ।

जवानी की दहलीज पे मैं आ गया।
और अपने रंग रूप पे इतरा गया।

अहंकार के पर्दे से मैं देख न पाया।
विधाता ने उकेरी थी तेरी जो काया।

दिन पंख लगा के उड़ रहे थे।
हम दोनों अपने रास्ते मुड़ रहे थे।

न मैंने पुकारा न तूने बुलाया मुझे।
फिर एक दिन वक्त ने आजमाया मुझे।

तेरे विदाई की घड़ी सुहानी आ गई।
लेने तुझे वो डोली अनजानी आ गई।

देख तेरी वो डोली वो फूलों वाली।
टीस सी उठी दिल में कुछ भूलों वाली।

हृदय आज बहुत व्यथित था।
सुन रहा था वो जो कभी न कथित था।

जिंदगी सीख नई सिखला रही थी।
तेरा रूप कुछ और मुझे दिखला रही थी।

कह रही थी "ले मैं तुझको छोड़ चली।
तेरी होकर तुझसे मुंह मोड़ चली।

जब मैं रहती थी सदा पास तेरे।
समझ न पाया था तू एहसास मेरे"।

चेहरे पे ख़ुशी पर मन में बवंडर था।
जाने कैसा विछोह का ये मंजर था।

तेरी जुदाई के डर से मन कांप उठा ।
सब कुछ खोने का दर्द मैं भांप उठा।

जो चली तेरी डोली तैयार होके।
बेजान हो गया मैं तेरे इश्क में गिरफ्तार होके।
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 मौलिक व स्वरचित~ कीर्ति रश्मि "नन्द( वाराणसी)

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