ओस की बून्द


ओस की बून्द थी शीशे पर
या ठंड में रात भर रोई थी चांदनी
धूप से मिल विगलित होने को 
प्रतीक्षा रत रही थी खिड़की पर 

सूरज ने आकर गले जो लगाया बून्द को
खुशी से सिमट  गई उसी  में
सूरज ने भी देखा हर फूल और दूब 
प्रतीक्षा में थे उसकी ,कुछ देर हुई आने में 
कुहासे ने रोक लिया था उसको 
वह बढा शीघ्रता से 
अंक में अपने समेट लिया सभी को
मोतियों सी बिखरी ओस की बून्दे
बन गईं दिनकर का हार 
और सभी समा गईं उसी में

रेनु सिंह

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