बावरे मन की पुकार
पंथ निहारत थक गई अंखियां,
आए न सांवरिया,
रस्ता देखत बरस बीत गए,
न थकीं मोरी अंखियां,
सखियां मोहे कहें बावरी,
सुन उनकी बतियां मैं मुसकाऊं,
मन में आस लिए बैठी हूं,
इक दिन आएंगे मेरे सांवरिया,
ग्रीष्म ऋतु भी बीत गई,
सावन की ऋतु आई,
तन मन भीगे भीगे चुनर,
सखियां कजरी गाएं,
पी के संग सब झूला झूलें,
उनका मन हर्षा जाएं
रिमझिम सावन मुझे रूलाए,
मैं तड़प रही दिन रतिया,
मन की अगन बुझे नहीं मोरी,
मैं हो गई बावरिया,
दिन बीते बीता चौमासा,
शरद ऋतु फिर आई,
मन सोचे अब आएगे प्रियतम,
तन मन अंखियां शीतल होंगी,
अब बांहों का हार मिलेगा,
पर मन की बातें मन में रह गई,
आस न फिर भी टूटी,
द्वार खड़ी रह गई अकेली,
अंखियां पंथ निहारें,
सखियां मोहे ताना मारें,
अब छोड़ आस पी आवन की,
न आएंगे अब तेरे सांवरिया,
क्यों हो रही है तू बावरिया,
संखियो के ताने सुन मन में हूक उठे,
पर आस न मन की छूटे,
सखियां बोले भूल जा उनको,
जो तोहे बिसरा बैठा,
हो सकता है आ जाए वो,
आस न तेरी टूटे,
आया भी तो उसके संग,
पद्मावती भी आएगी,
तू नागमती बन जाएगी,
तेरा प्रियतम तेरा न होगा,
दूजे संग प्रीत बढ़ाएगा,
तू बनी बावरी रस्ता देखे,
सुध बुध सब कुछ भूल गई क्यों ?
संखियां मुझसे बोली,
मैं मुस्कराई धीरे से,
बोली मन की बतियां,
मैंने तो बस प्रेम किया है,
व्यापार मुझे नहीं आता,
मैं पी का देखूंगी रस्ता,
अपने अंतिम क्षण तक,
कागा से मैं करूंगी विनती,
तन मेरा खाना कागा,
अंखियों को तुम न छूना कागा,
जो पंथ निहारें पी का,
मन बांवरिया तन बांवरियां,
मैं घूमूं बनकर बांवरिया,
जग हंसता है हंस लेने दो,
मेरे संग मेरी प्रीत अमर हो जाएगी ।।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
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