गलती भाग १३
बदलाव ही जीवन है। फिर भी यकायक इतना बदलाव किस तरह उचित है। मनुष्य को बदलने में भी जरा समय लगता है। एक परिवार जो मेहनत मजदूरी कर अपना पेट पालता था, यकायक संपन्न बन गया। यहाँ तक तो ठीक है। पर यकायक वही परिवार विपत्ति के असीम सागर में डूबने लगे। क्या यह ईश्वर का अन्याय नहीं है।
वैसे माना तो यही जाता है कि ईश्वर पूर्ण समदर्शी हैं। हमेशा निष्पक्ष रहते हैं। फिर जो सुख और दुख सामने आते हैं, वे भी ईश्वर प्रदत्त नहीं होते अपितु कर्मफल होते हैं। कब किस जन्म का किया शुभ कर्म किसी को आनंद देने लगता है। तो कब किसी जन्म की भूल सामने आकर अपार कष्ट दे जाती है।
सौम्या का विवाह हुए कुछ महीने ही गुजरे थे। ठाकुर रोशन सिंह जो कि कालीचरण के अन्नदाता थे, जिनकी कृपा से वह प्रधानी का सुख भोग रहा था, पुश्तैनी जायदाद का मुकदमा हार गये। पुश्तैनी जायदाद में परिवार के बीसियों की भागीदारी को अदालत ने स्वीकार कर लिया। ठाकुर साहब की शान वह हवेली कई टुकड़ों में बट गयी। इतने छोटे छोटे भाग हो गये कि खुद ठाकुर रोशन सिंह ने अपना हिस्सा दूसरे परिजन को बेच दिया। जब गांव में रहना ही नहीं है तो फिर गांव में घर रखकर ही क्या फायदा।
कालीचरण को अपना पशुधन हवेली से हटाना पड़ा। घर पर ज्यादा जगह न थी। फिर भैंसों को कहाॅ रख पाते। दुखद बात यह भी हुई कि कालीचरण को भैंसों की जायज कीमत भी नहीं मिल पायी।
पर यह तो बस एक शुरुआत थी। भीतर की बात किसे पता। ठाकुर रोशन सिंह को पार्टी ने विधायकी की टिकट भी नहीं दी। ठाकुर साहब बगाबती बन गये। फलतः पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। ठाकुर साहब के लिये यह सम्मान की बात बन गयी। पहले तो वह नयी पार्टी गठित होने की घोषणा करते रहे। बहुत सारे साथियों को खुद के साथ बताते रहे। पर अंत तक कोई भी नेता उनका साथ देने नहीं आया। डूबते सूरज की आराधना कौन करता है।
ठाकुर रोशन सिंह निर्दलीय मैदान में उतरे। पैसे की कोई कमी नहीं थी। पानी की तरह पैसा बहाया। पर परिणाम ऐसा रहा कि उनकी जमानत भी जब्त हो गयी। इस चुनाव ने उन्हें आर्थिक रूप से भी हिला दिया।
साथियों के ऐब भी छिपाये जाते हैं। वास्तव में ऐसा कौन है जिसमें कोई बुराई न हो। रात्रि में चांदनी बखेरते चांद भी कौन सा दाग से अछूता है। पर विद्रोही के दुर्गुण कब माफ होते हैं। ठाकुर रोशन सिंह की कमियां ढूंढ ढूंढ कर सामने लायी जा रही थीं।
गेंहू के साथ बथुआ को भी पानी मिलता है। वहीं गेंहू के साथ घुन भी पिस जाता है। कई बार तो किसी का मनोबल गिराने के लिये उसके विश्वासपात्र को भी निशाना बनाया जाता है। फिर ठाकुर रोशन सिंह का विश्वासपात्र कालीचरण ही माना जाता था। कालीचरण के काम में हजारों कमियां थीं। गांव में कितने खरंजे कागजों में बन चुके थे। खुद कालीचरण की गली में सरकारी हैंडपंप नहीं था, पर कागजों में गांव की हर गली में हैंडपंप लगे थे। कालीचरण को विश्वास करना भी कठिन हो रहा था कि ठाकुर साहब ने उसे इतना धोखा दिया है।
शक्ति संपन्न विषम परिस्थितियों को भी झेल लेता है। पर कमजोर पूरी तरह मिट जाता है। संभवतः यह पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि कमजोर का आशय निर्धन हो, उस समय तो बिलकुल भी नहीं। निर्धन गिर कर भी अपनी जिजीविषा से फिर उठ जाता है। पर बेहतर सुख सुविधाओं का आदी का एक बार हुआ पतन फिर उसे उठ खड़े होने का मौका नहीं देता है।
कालीचरण और उसके परिवार ने कितने संकट झेले फिर भी वह उनसे पार पा गये। मेहनती लोगों को काम की कमी न थी। दोनों ही बेटे संस्कारी थे। जो कमाते, पिता को लाकर देते ताकि व्यर्थ मुकदमों से पिता जल्द बाहर निकलें। छोटा बेटा आशुतोष गांव से बाहर एक कस्बे में भी काम तलाशने लगा। एक ठेकेदार के पास उसे काम मिल भी गया। परिवार की सुमति संभवतः ईश्वर को भी पसंद आयी। कालीचरण को मुकदमों से आजादी मिली।
निम्मो और सुरैया के मध्य कभी कभी छोटे छोटे विवाद हो जाते थे। इतने समय सगी बहनों की भांति रहती आयीं दोनों बहुओं के मनमुटाव का यथार्थ कारण समझने की क्षमता किसी में न थी। उसके बाद भी दोनों बुजुर्गों का ध्यान रखतीं। अपनी तरफ से कोई कमी न छोड़ती।
दया के रिश्ते के काफी प्रयास किये। पर कहीं सफलता न मिली। इतने समय में दया प्रत्येक कार्य में कुशल हो गयी। कभी सौम्या से गृहकार्यों के कारण मात खाने वाली दया का अब हर काम कुछ खास तरीके से होता था। कलात्मकता कुछ ऐसी कि जो भी देखे, वह तारीफ किये बिना न रहे। साथ ही साथ सिलाई, बुनाई, कढाई जैसे कितने ही हुनर वह जानती थी। सही बात है कि समय सब सिखा देता है।
जब सैरावत ने कालीचरण को संदेश भेजा, तब खुशी के कारण कालीचरण की आंखों से आंसू ही आ गये। वैसे जुगनू उनकी नजर में था। फिर भी वह जुगनू से रिश्ता करने की बात का साहस नहीं कर पा रहे थे। जुगनू के आचरण की थाह लेने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की। तुरंत स्वीकृति का संदेश भेज दिया।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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