ऐसी शादी से भगवान बचाए

हास्य-व्यंग्य 

ऐसी शादी से भगवान बचाए 

1980 की बात है। हमारे गांव में एक लड़की को देखने के लिए कुछ लड़के वाले आये । पहले घरों में बहुत सारा सामान नहीं होता था । मौहल्ले से ही अच्छे अच्छे बर्तन, टेबल, कुर्सी और दूसरे आइटम इकठ्ठे किये जाते थे जिससे लड़की वालों का स्टेटस बढिया नजर आये । यहां पर भी मौहल्ले के अच्छे अच्छे बर्तन , बिस्तर , कुर्सी , टेबल सब उनके घर पहुंचाये गये । लड़की वाले खानदानी लगने चाहिए चाहे घर में चूहे व्रत करते हों । लड़के वाले भी कम खानदानी नहीं थे। सबने जो कपड़े पहने थे वे भी उनके पड़ौसियों ने ही दिये थे । कहा कि खुद के फटे कपड़े पहन कर जायेंगे तो गांव की क्या इज्जत रह जायेगी ? फिर कोई भी आदमी अपनी बेटी का ब्याह गांव में नहीं करेगा । कितना भाईचारा था सबमें उन दिनों । वैसे चाहे आपस में एक दूसरे की टांग खींचने में सारा दिन निकाल देते थे । लेकिन मजाल है कि गांव की इज्जत पर कोई कीचड़ उछालने की हिम्मत करे ? तो ऐसे में वह दूल्हा पूरे गांव की इज्जत का रखवाला होता था । 

खैर, दोनों पक्ष ताम-झाम देखकर राजी हो गये और रिश्ता तय हो गया । लड़के वाले बड़े "गंग देव" थे । मतलब गंगा की तरह निर्मल ।  दहेज प्रथा के घोर विरोधी । अगर लड़की वाले अपनी लड़की को अपनी मर्ज़ी से कुछ भी देना चाहें तो इसमें कोई मनाही नहीं । मना करना उनकी बेइज्जती समझा जायेगा । लेकिन वे दहेज बिल्कुल नहीं लेंगे । लड़की को देना दहेज थोड़े ही होता है ? लड़की तो बेटी है और बेटी को चाहे जितना दो , उस पर कोई रोक नहीं है । 

दलाल से सारी बातें तय कराई जाती थी । सीधे सीधे नहीं कहा जाता था बल्कि घुमा फिराकर कहने का चलन था । जैसे " हमारे मौहल्ले में एक शादी हुई है अभी-अभी। उसमें इतना माल आया था । ।मारा लड़का और खानदान उससे तो लाख दर्जे बेहतर है तो उस लड़के की शादी से  इक्कीस ही माल आना चाहिए, उन्नीस नहीं । नहीं तो गांव में क्या इज्जत रह जायेगी हमारी "? दलाल का यही चातुर्य था कि वह दोनों में किसी तरह सामंजस्य करवा कर यह शादी करवाये । सारा मामला दलाल पर ही टिका रहता था । 

बारात लड़की वालों के गांव पहुंच गई । बारात के इंतजाम देखकर लड़के के बाप का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा । न कोई नाई , न धोबी । जेठ का महीना और एक भी कूलर नहीं । और बरात भी छपरे में ठहरा दी ? नहाने का साबुन भी लाइफबॉय ! कम से कम लक्स तो रखना चाहिए था ना। 

दलाल बड़ा समझदार था । उसने देसी साबुन मंगवा दिया और उसे लक्स कहकर भिजवा दिया। सब खुश । पढ़ना लिखना आता नहीं । लक्स कभी देखा नहीं, बस नाम ही सुना था ।  बारात में अगर लक्स से नहीं नहाये तो क्या इज्जत रह जायेगी बारातियों की ? इसलिए उन्हें साबुन तो लक्स ही चाहिए । देसी साबुन पकड़ाकर दलाल ने मन ही मन कहा "लो , हरामखोरो, अपनी ऐसी तैसी करवाओ और देसी से काम चलाओ" । दलाल बहुत देर तक मन ही मन बड़बड़ाता रहा । 

जब बायातियों का खाना हो रहा था तो खाने में बड़ी हील हुज्जत हुई । खाना चाहे कितना ही बढिया क्यों ना हो, उसमें नुक्स निकालना जैसे हर बाराती का जन्म सिद्ध अधिकार था । 
"ये रायता इतना पतला क्यों है भाई ? और इसमें मिर्ची भी इतनी है कि खाने वाले को सात पुश्तों की नानी याद आ जाये" । 
दलाल ने कहा " ये बराती हैं या शुक्र-शनि देव । एक एक बराती बीस बीस दोने रायता पी रहा है । जबकि पांच दोने पीने का ही तय हुआ था । ऐसे तो बेटी वाले का भट्टा ही बैठ जायेगा" ? 

पर बेटी वाले के बारे में कौन सोचता है ?  बेटी वाला क्या करता बेचारा ? गांव में दही का जुगाड़ कहां से करता ? इसलिए रायते में दे पानी , दे मिर्ची । इसी "संजीवनी बूटी" से उसकी इज्जत बचा सकती थी । ऐसा ही किया गया । तब जाकर पार पड़ी । 

जैसे तैसे शाम हुई । सब बाराती तैयार हो गए। नये नये कपड़े। चिप्पी वाले । मतलब कपड़े पर ब्रांड और कीमत लिखी कागज की चिप्पी तब तक नहीं उतारते जब तक उसको पांच लोगों के सामने "दिखावड़ा" नहीं करा लेते । फिर सब लोग यह तय करते कि वह लुट कर आया है या दुकानदार को लूट कर लाया है । लूटकर लाने वाले की वाहवाही होती थी और लुटने वाले की फजीहत ।

जवान , बूढ़े सब बाराती मस्ती में नाच गा रहे थे। कहते हैं कि बरात में जब तक "कुल्हड़ का पानी" नहीं लगे तो मजा ही नहीं आता । "कुल्हड़ का पानी लगना" मतलब बेतकल्लुफ होना । जब तक हर बाराती बेतकल्लुफ नहीं हो जाये तब तक मजा नहीं आता था बारात का । 

बारातियों को "कुल्हड़ का पानी" नहीं लगे इसके लिए  लड़की वाले ने गिलासों का खास इंतजाम किया था । न रहेगा कुल्हड़ और न मिलेगा कुल्हड़ का पानी ।  बेचारे लड़की वालों ने आसपास के गांवों से सारे गिलास इकट्ठे करवा लिए थे । इस इंतजाम से बाराती भड़क उठे । जब तक कुल्हड़ का पानी नहीं मिलेगा, तब तक मजा नहीं आयेगा । उन्हें तो बस कुल्हड़ का पानी चाहिए।  बेचारा बेटी का बाप रात भर कुल्हड़ ढूंढता रहा । 

इधर सभी बराती नाच रहे थे और बरात देखने आई महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करके ही ही करके हंस रहे थे । एक पहलवान की बीवी भी बरातियों का नाच देख रही थी । एक बराती ने उसे आंख मार दी । बस फिर क्या होना था । पहलवान ने बारातियों की वो सुंताई की कि ये जिंदगी भर किसी को छेड़ने की तो छोड़ो, किसी बारात में भी जाने का नाम ना लें ।

बेटी वाले इस कुटाई कांड से बड़े खुश थे कि साले , इसी लायक थे । लेकिन खुशियों को मन में दबाकर बहुत अफसोस प्रकट कर रहे थे। ऐसे बरातियों को जिनके हाथ पांव टूटे थे, डोली में भेजना पड़ा । क्योंकि चलने में असमर्थ हो गये थे न वे । और करो कुकर्म ?  और बेचारी दुल्हन को बैलगाड़ी से भेजा गया । 

बड़ी मुश्किल से वह शादी संपन्न हुई और हम लोग अपने अपने घरों को वापस लौट आए । भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान, ऐसी शादी से बचा ले । अब आगे नहीं जायेंगे ऐसी शादी में । 

हरिशंकर गोयल "हरि"

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