गलती भाग १४
दया के विवाह की बात सैरावत जी के छोटे बेटे जुगनू के लिये चल रही थी। निम्मो और सुरैया का वैर भी अचानक प्रेम में बदल गया। अब सुरैया निम्मो का बहुत ध्यान रखती। काम के बोझ में अगर निम्मो कलेऊ करना भूल जाये तो सुरैया खुद थाली लगाकर उसके पास आ जाती।
"काम तो जीजी पूरे जीवन खत्म न होगा । समय से नाश्ता करना बहुत जरूरी है।"
"अरे मैं तो आ ही रही थी। फिर अभी देर ही कितनी हुई है।"
"देर जीजी। अरे पूरे दस बजने बाले हैं।"
निम्मो ने थाली हाथ में पकड़ ली। हाथ से बनायी रोटी के दो ही कौर मुंह में गये कि वह रुक गयी।
" अरे। अभी तूने भी तो कलेऊ नहीं किया सुरैया। "
" मुझे क्या है जीजी। अभी तो मैं जवान हूँ। थोड़ी देर से मेरा क्या बिगड़ जायेगा। "
" बहुत जवान है। बेटी की शादी होने बाली है। और इधर जवानी भी हाजिर है। ज्यादा बात ना बना।"
यह सब देखना सुखद लगता। वैसे सौम्या के विवाह तक यही स्थिति थी। दोनों के मध्य अपार स्नेह था। दोनों एक दूसरे का बहुत ध्यान रखतीं थीं। पर सौम्या के विवाह के बाद से अब वह स्थिति आयी है।
" जीजी। बड़े लोगों के कैसे हाल होते हैं। सुना है कि उन्हें कोई दुख नहीं होता। कभी किसी चीज की कमी नहीं होती।"
"सो तो है। अब सौम्या को ही देख लो। कितने कपड़े गहनों में लदी रहती है। कुछ रूप भी निखर आया है। पैसे में तो बहुत ताकत होती है।"
सुरैया उस दृश्य की कल्पना करने लगती जबकि उसकी दया भी उसी तरह सज संवर के रहेगी जैसे कि सौम्या रहती है। हालांकि उसे लगता कि सौम्या के आदमी की कमाई ज्यादा है। फिर भी छोटा ही माॅ बाप को ज्यादा प्रिय होता है। कमी दया को भी नहीं रहेगी। वह तो वैसे भी सुंदर रूप की मलिका है।
निम्मो अभी उन दुखों को समझ नहीं पायी थी जो कि सौम्या के मन को अक्सर तड़पाते थे। ऊपर की शान शौकत में वेदना इस तरह छिपी थी कि उसका अनुमान सगी माॅ ही नहीं लगा पायी। फिर किसी अन्य के लिये उस विषाद की थाह पाना आसान न था।
आंखे बंद कर सुरैया उस दृश्य की कल्पना कर रही थी। उन सुखों को तलाश रही थी जो कि दया के जीवन का भी भविष्य बनने जा रहे हैं। अनुमान किसी को न था कि इसी समय सौम्या आ जायेगी।
छोटे से घर को देख कैलाश कुछ बिदक रहा था। उसे हमेशा बड़ा बड़ा ही देखने की आदत थी। वैसे एक बार वह पहले भी ननिहाल आया था। पर उस समय वह अबोध शिशु था।
सुरैया ने सौम्या का सामान उठाया और घर के एक कमरे में रख दिया। निम्मो कैलाश को गोद में उठाने की कोशिश कर रही थीं। कैलाश बिदककर माॅ से चिपक रहा था।
"अरे ।क्या पैदल आयी है।"
"ना बग्गी में आयी हूँ। बग्गी गांव से थोड़ा बाहर खड़ी है। नौकर बैलों के चारा पानी का जुगाड़ कर रहा है।"
गांव के बाहर बच्चों का हुजूम उस बग्गी के चारों और घूम रहा था। बड़े सुंदर पर्दे लगे हैं। भीतर बैठा सब बाहर देख सकता है। पर बाहर बाले को भीतर बैठी सुंदरी का चेहरा भी नजर नहीं आता।
ठाकुर साहब की मोटर गाड़ी गांव में बहुत बार आयी थी। पर उस मोटर गाड़ी के पास जाने का साहस किसी बच्चे में न था। पर यह तो सौम्या बूआ की बग्गी है। अपनत्व में पशुयान भी मोटर से ज्यादा प्यारा लग रहा था।
सौम्या और दया ने एक साथ कलेऊ किया। बच्चे के लिये किसी पड़ोसी घर से दूध मंगाया गया। सौम्या की आंखों जरा दुखने लगी। खुद का बचपन याद आ गया। जरा जरा से अभाव आंखों के सामने दिखने लगे। पर क्या आज भी उसके जीवन में अभाव नहीं हैं। समझ नहीं पा रही थी कि दया को किन अभावों से बचाऊं।
एक तरफ जीवन की चकाचौंध तो दूसरी तरफ मन के तराने। कौन श्रेष्ठ है। किस की उपासना की जाये और किससे नजर फेरी जाये।
एक तरफ दूध दही की नदियाँ हैं, बच्चों को पहनने औढने की कोई कमी नहीं, फिर भी मन अशांत और प्रेम रहित। दूसरी तरफ धेवते के आगमन पर भी दूध पड़ोस से आता है। वह भी इसलिये क्योंकि मैं एक संपन्न परिवार की वधू हूँ। हाय देव। किस सत्य को उजागर करूं और किसे छिपाऊं।
आज दया जिस तरह चहक रही है। बड़ी बहन से स्नेह से मिल रही है। उसे कैसे समझाऊं कि सत्य बहुत भयानक है। इतना कि शायद उसे सुन नीरस मन बाले की आंखों से भी आंसुओं का सैलाब बहने लगे।
फिर वह किस तरह अपने आंसुओं की दरिया को प्रगट करे। किस तरह सभी की उम्मीदों को मटियामेट कर दे। जबकि घर में सभी बहुत समय से परेशान हैं। यह दूसरी बात है कि ईश्वर की कृपा से ज्यादातर परेशानी समाप्त हो चुकी है।
फिर वही प्रश्न कि जिस छोटी बहन से असीम प्रेम था, उसे किस तरह खुद की तरह मिटने दूं। किस तरह उसका जीवन खुद की तरह छद्म बनने दूं जहाँ हसी के पीछे भी एक गंभीर रुदन छिपा है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
Comments
Post a Comment