वैराग्य पथ - एक प्रेम कहानी भाग ४५
एक दिन
महाराज शत्रुजित का दरवार लगा हुआ था। राजकुमार ऋतुध्वज बहुत दूर यमुना नदी के तट पर स्थित राज्य में गये हुए थे। जब राजकुमार बहुत दूर जाते थे तब बहुधा एक या दो दिन बाद आते थे। आज राजकुमार के वापसी की कोई उम्मीद न थी। साथ ही साथ ऐसी भी कोई उम्मीद न थी कि कोई राजकुमार के विषय में कोई अप्रिय सूचना लेकर आयेगा। राजकुमार वीरता में अतुल्य थे। धरती के अतिरिक्त स्वर्ग और पाताल में भी कोई उनका सामना नहीं कर सकता। पर एक सत्य यह भी है कि किसी की भी शक्ति मात्र शक्तिमान की शक्ति का एक अंश मात्र होती है। फिर यदि शक्तिमान की इच्छा ही कुछ अलग करने की हो तो किसी की शक्ति ही क्या कर सकती है। पल भर में शक्तिशाली दीन बन सकता है और शक्तिहीन विश्व नियंता। यही तो उन अजन्मा की माया है। जैसे चंद्र की कांति वास्तव में सूर्य के प्रकाश का परिणाम होती है। उसी तरह विश्व में किसी का भी कोई गुण मात्र ईश्वर के गुणों से ही अपना अस्तित्व प्राप्त करता है।
विधाता के मुंह फेर लेने से भले ही कोई शक्तिशाली भी पराजित हो जाये पर बचपन से ही मन में भरा क्षत्रियत्व का स्वभाव मिट नहीं सकता। वास्तव में शक्ति शारीरिक न होकर एक मानसिक अवस्था ही होती है। मन से पराजय स्वीकार न कर पुनः पुनः प्रयास करना ही यथार्थ शक्ति है। सत्य है कि किसी भी परिस्थिति में राजकुमार किसी से पराजित होकर वापस नहीं आ सकता है। या तो जीत का परचम लहरा कर आयेगा या रणभूमि में ही चिर निद्रा में शयन कर लेता।
दरवार के बाहर कोलाहल होने लगा। कोई उच्च स्वर से रो रहा था। संभवतः राज्य कर्मचारियों को उसके रुदन का कारण ज्ञात था। कर्मचारी उसे लेकर चुपचाप दरवार में आ गये। वह एक नैष्ठिक ब्राह्मण था। उसके वचनों पर अविश्वास करने का कोई आधार ही नहीं था। फिर उसके पास राजकुमार की रत्न जड़ित अंगूठी भी थी।
" महाराज। कैसे बताऊं। किस तरह सत्य भाषण करूं।"
ब्राह्मण फिर से रोने लगा। राज्य कर्मचारी ने वह अंगूठी महाराज को दे दी। राजकुमार की अंगूठी एक विप्र के पास। अनिष्ट की आशंका से महराज का मन चिंता के भंवर में फस गया। इस समय वह भी रुदन करना चाहते थे। पर किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे रहे।
" विप्र। सत्य बताइये। मेरा पुत्र अब कहाॅ है।"
" कैसे कहूं महाराज। मैं यमुना नदी के तट पर रहकर ईश्वर आराधना में रत विप्र। अभी उचित गुरु की तलाश में भले ही विधिवत सन्यास नहीं लिया है। फिर भी संसार से अलग ईश्वर आराधना में रत रहता हूं। परम उदार राजकुमार का मुझपर विशेष स्नेह रहा है। प्रायः जब वह हमारे राज्य में आते हैं तब मुझसे अवश्य मिलते हैं। मैं अकिंचन उन्हें केवल ज्ञान ही दे सकता हूं।
दो दिन पूर्व सायंकाल का अवसर था। राजकुमार मेरे पास आये। उस रात वे जिद कर मेरी ही कुटिया में रुके। वन्य फल और कंदमूल का सेवन कर शयन कर रहे थे। कि अचानक कुछ निशाचरों ने कुटिया को घेर लिया। राजकुमार ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। पर विधि का विधान, वे वीरगति को प्राप्त हो गये। उनका अंतिम संस्कार कर मैं जितनी तेजी से चल सकता था, सूचना देने के लिये चल दिया। मार्ग में कुछ रथारूढों ने भी मेरी सहायता की। महाराज। राजकुमार की अंगूठी मेरे वचन की सत्यता का प्रमाण है। "
राजदरवार में फिर रुदन का समवेत स्वर उठा। किसी दूत ने राजमहल में भी सूचना प्रदान कर दी। फिर ऐसा लगा कि रुदन के समवेत स्वर से आसमान ही फट जायेगा। पर इतने रुदन में मदालसा के रुदन की कोई ध्वनि नहीं। किसी को कुछ देखने का ध्यान न था। पर यह भी सत्य है कि मानव का स्वभाव थकना भी है। जब सब रोते रोते थक गये। जब सभी वाह्य जगत में वापस आये तब ज्ञात हुआ कि अब रुदन का एक विषय नहीं है। अपितु आज रुदन के दो दो कारण हैं। राजकुमार के निधन की सूचना सुनते ही मदालसा की आत्मा उसका शरीर छोड़ चुकी थी। पुत्र के साथ पुत्रवधू से भी वियोग हो चुका था।
कुछ ही समय में मदालसा ने अपने व्यवहार से महाराज और महारानी को प्रसन्न कर लिया था। सचमुच मदालसा उनकी पुत्रवधू से बहुत बढकर उनकी पुत्री बन चुकी थी। महाराज और महारानी की आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे। पर केवल रोना ही पर्याप्त नहीं होता। कर्तव्य प्रमुख है। मृतक तो अपनी यात्रा पर निकल जाता है। पर परिजनों के लिये कुछ कर्तव्य छोड़ जाता है।
दासियों ने मदालसा के शरीर को स्नान करा उसका श्रंगार किया। पति के साथ दूसरे लोक की यात्रा पर भी गमन करने बाली नारियों को सती कहा जाता है। एक सती स्त्री की अंतिम विदा पूर्ण श्रंगार के साथ की जाती है। एक सती की अंतिम यात्रा में उसका साथ देना बड़ा पुण्य का कार्य कहा जाता है। माना तो यह भी जाता है कि एक सती से जो भी मांगा जाता है, सती अवश्य ही देती है। विधाता की इच्छा भी सती की इच्छा का प्रतिवाद नही करती।
मदालसा के अंतिम दर्शनों और उसकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने के लिये बड़ा जनसैलाब तैयार था। पूरे राजकीय सम्मान के साथ मदालसा की अंतिम यात्रा निकली। नगर से बाहर गोमती नदी के तट पर चंदन की लकड़ियों की चिता तैयार की गयी थी। अग्नि देव के माध्यम से अपना शरीर हवन कर मदालसा अपने पति की अनुगामी हो गयी। वैसे यह कहा नहीं जा सकता कि अपने पति का अनुगमन करने के बाद भी मदालसा को किसी भी अन्य लोक में उसका पति मिलेगा अथवा मदालसा की आत्मा अपने पति से मिलन के लिये पुनः पृथ्वी लोक आयेगी। तथा फिर से जन्म लेकर अपने पति का साथ पायेगी।
क्रमशः अपने भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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