हिन्दी देश के जनमानस के लिए राष्ट्रभाषा थी, है, रहेगी ।



संसार में आपस में संवाद कायम करने के लिए जबसे बोलियों का उद्भव और तत्पश्चात भाषाओं का विकास हुआ, तब से मनुष्य न केवल आपसी बर्ताव के लिए, बल्कि आपसी संबंधों के लिए भी इन पर पूरी तरह से आश्रित हो गया और धरती के सभी भौगोलिक क्षेत्रों में वहां के स्थानीय निवासियों द्वारा अपनी-अपनी आवश्यकताओं और परिवेश के अनुसार भाषाओं और अपने-अपने व्याकरण का आविष्कार हुआ और समय के साथ यह चीजें परिष्कृत होती चली गयीं।
                 इतिहास को देखें तो हमें भली प्रकार यह पता चलता है कि अपनी बोली, अपनी भाषा में कार्य करने वाले लोगों ने न केवल उत्कृष्ट कार्य किया, बल्कि अपने युग में वह सिरमौर भी बन पाए। कारण यह था कि उनका जो शासन-प्रशासन व कारोबार था, वह उनकी आत्मिक बोलियों द्वारा संचालित था और शासन-प्रशासन व कारोबार करने वाले तथा उस कारोबार से जुड़े हुए सभी लोगों का संवाद उनकी अपनी भाषाओं में ही होता था। जिससे न केवल उस संवाद की आत्मीयता बनी रहती थी, बल्कि सभी लोगों में भी एक प्रकार के भाईचारे का आत्मीयतापूर्ण रिश्ता कायम हो जाया करता था और यह सच आज भी बिल्कुल इसी रूप में कायम है।
                  वर्तमान में भी संसार के समस्त वे देश जो आज संसार के सिरमौर बने हुए हैं, वे सब के सब अपनी ही भाषाओं में काम कर रहे हैं और अन्य भाषाएं उनके लिए ऐच्छिक हैं, जिन्हें वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार चुनते हैं, सीखते हैं और उपयोग करते हैं। भारत भी तभी तक पूरे विश्व का सिरमौर था, जब वह अपनी भाषा में काम करता था और वह किस हद तक सिरमौर था, इसका साक्षी भी इतिहास ही है। इसलिए इस बात को झूठला देना तो न केवल जानबूझकर ओड़ी गई अज्ञानता होगी, अपितु भाषा के प्रति अन्याय भी होगा, साथ ही कदाचित उन समस्त भाषा-प्रेमियों के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय होगा, जो अपनी भाषा में काम करने की वकालत करते हैं।
                   पिछले दिनों भारत के गृह मंत्री ने हिंदी की बाबत वकालत करते हुए पूरे देश की काम करने की भाषा हिंदी को सुझाया, तो कतिपय राज्यों के नेताओं ने उन पर बड़ा बेहूदा आरोप लगाया और वह इस प्रकार के तरह-तरह के आरोपों द्वारा पहले भी भाजपा को देश को बांटने वाला साबित करने का षड्यंत्र करते रहे हैं! इसमें कितना सच है और कितना झूठ यह एक अलग बहस का विषय है। लेकिन यहां पर यदि बात भाषा की छिड़ी है, तो हम समस्त देशवासियों पर कम-से -कम अपनी भाषा के प्रति अपनी आत्मीयता के कारण या अपनी भाषा के जन्मजात बच्चे होने के कारण हम सबको उसकी वकालत करनी ही चाहिए।
                    हिंदी की वकालत करते हुए भी उस वकालत करने वाले को यह कहने पर विवश होना पड़ता है कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी जबकि हिंदी तो अपने-आप ही इस देश की आत्मीय और सहजता पूर्वक बोली जाने वाली भाषा है। यहां तक उन लोगों की भी यह सहजता पूर्वक समझी जाने वाली ही भाषा है, जो इसका पुरजोर विरोध करते हैं और वही लोग इसे थोपा जाना कहते हैं। लेकिन यदि देश के जनमानस की उनके जन्म से जुड़ी हुई भाषा को थोपा हुआ जाना कहते हैं, तो फिर महज 200 साल पहले अंग्रेजों की गुलामी के पश्चात आई हुई एक भाषा अंग्रेजी को थोपा हुआ जाना क्यों नहीं समझा जाना चाहिए ? क्योंकि इन 200 सालों में अंग्रेजी को पूरी तरह से भारत के प्रभुत्व वर्ग की भाषा बना दिया गया और यह सच है कि वह प्रभुत्व वर्ग भारत की आम जनता के साथ में कभी भी उस स्तर का अंतरंग सरोकार ही नहीं रख पाया, जिस स्तर के सरोकार की आपस के एका और आपसी जुड़ाव हेतु गहनता से आवश्यकता होती है और आज भी वह प्रभुत्व वर्ग आम जनता से कोसों दूर रहता हुआ, किन्तु आम जनता के लिए समस्त निर्णय लेता हुआ भी लगातार अपनी कथनी एवं करनी से उसी आम जनता का अपमान करता पाया जाता है, जिसके बीच से वह चुनकर आता है और जिसके हित (सो कॉल्ड) के लिए वह अपने-आपको काम करता हुआ बताता है।
                     अंग्रेजी सभ्य ही लोगों की भाषा नहीं है। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी बोलने वाले असभ्य ही नहीं हुआ करते, बल्कि अंग्रेजी की असभ्यता तो इतनी ज्यादा है कि इसने विश्व में सबसे पहले नस्लवाद को जन्म दिया। इसने न जाने कितने ही देशों को अपना गुलाम बनाए रखा। इसने अपने नस्लवाद को बनाए रखने के लिए न जाने कितनी ही चालाकियां की ! यहां तक कि अंग्रेजी बोलने वालों ने ही वर्षों तक गुलामी प्रथा कायम रखी। यहाँ तक कि आधुनिक काल तक औरतों को डायन बनाए रखा और औरतों के प्रति तरह-तरह के अपमानजनक और स्त्री-विरोधी नियम-कानून बनाए रखें और तो और इस विश्व में सबसे बाद में अंग्रेजी बोलने वाले देशों की औरतों को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ!!
                      आज भी जितनी भी घटनाएं नस्लवाद और रंगभेद से संबंधित होती हैं वो भी अधिकांशतः अंग्रेजी बोलने वाले देशों में ही होती हैं। इसी से यह जाहिर है कि अंग्रेजी केवल सभ्य लोगों की भाषा नहीं है। बल्कि अंग्रेजी बोलने वाले लोगों ने इस विश्व पर सबसे ज्यादा जुल्म ढाए हैं। और यह कोई अतिशयोक्ति वाली बात भी नहीं है, बल्कि इसका भी इतिहास ही गवाह है। लेकिन भारत के मामले में भारत के प्रभुत्वशाली लोगों ने ही अंग्रेजी को अपना "बाप" बना कर आजादी के बाद से ही अपनी "माँ" के साथ रेप करवा दिया है यानी "हिंदी" के साथ और वह रेप आज तक जारी है और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस वर्ग को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि वह कितना घृणित कार्य कर रहा है और उल्टा वो अंग्रेजी के सम्मुख हिंदी को थोपा हुआ बताता है। यह तो देश की उस करोड़ों की संख्या की जनता के साथ विश्वासघात है जो जनता अपनी देशज भाषा में सोचती है, बोलती है और लोगों के साथ संवाद कायम करती है और मजेदार बात यह है कि उस जनता के साथ अपने स्वार्थ के वक्त संवाद कायम के लिए करने के लिए यह प्रभुत्वशाली वर्ग भी समय-समय पर उसी की भाषा में संवाद करता हुआ दिखाई देता है। लेकिन अपना काम निपट जाने के बाद फिर वही अंग्रेजी की बोली बोलना शुरू कर देता है! यह लोगों की भावनाओं के साथ बहुत बड़ा कुठाराघात है और इससे अब इस दौर में निजात पाया जाना बहुत आवश्यक हो गया है। वरना यह देश विकास तो कर जाएगा लेकिन बोली के माध्यम से देश के ऐसे दो टुकड़े कर डालेगा, जिसमें एक में अकूत दौलत वाला "इंडिया" और दूसरे में एकदम साधारण ढंग से जीने वाला "भारत" होगा, जो वर्तमान में भी दिखाई तो देता ही है और इस पर भी तरह-तरह की बातें होती हैं, चुटकुले बनते हैं सटायर होते हैं!
                       तो हमें इस बात को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि अपनी बोली अपनी मां के समान होती है। जिस प्रकार हम अपनी मां का दूध पीकर बड़े होते हैं और अपनी मां का सम्मान करते हैं। उसी प्रकार अपनी भाषा भी वही एक मां होती है, जिसके चलते हम एक संस्कार सीखते हैं और अपने सभी लोगों के प्रति आदर का भाव लाते हैं। जो किसी भी विदेशी भाषा के द्वारा ला पाना असंभव है। तो मुझे लगता है कि भारत के गृह मंत्री ने पिछले दिनों हिंदी की बाबत बिल्कुल सही बात कही है और इस पर कतिपय लोगों के विभिन्न तरह के कटाक्ष और आक्षेपों को दरकिनार करते हुए भारत की सरकारी एवं प्रशासनिक कार्यों की भाषा किसी भी स्थिति में हिंदी को ही बनाया जाना समयानुकूल जान पड़ता है और इसके लिए सबसे पहले भारत के न्यायालयों की भाषा हिंदी करनी समीचीन जान पड़ती है। क्योंकि न्यायालयों से ही भारत में सभी तरह के मामलों का निर्णय होता है। वह सारे निर्णय भारत के आम लोगों के बारे में होते हैं, लेकिन उन निर्णयों की भाषा भारत के आम लोगों की समझ के बाहर होती है, जब तक कि वह अनुवाद न की जाए।
                        तो पहले एक विदेशी भाषा के द्वारा भारत के भविष्य का निर्धारण करना और उसके बाद उस भाषा के अनुवाद के द्वारा भारत की जनता को उस भविष्य निर्धारण के बारे में बताना, यह अपने आप में कितना बड़ा एवं भद्दा मजाक है, यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं। इसलिए जितनी जल्दी हो, हमारी और हम जैसे करोड़ों लोगों की यही राय है कि हिंदी इस देश के अरबों लोगों की भाषा है और इसलिए भारत के सभी प्रकार के कार्यालयों के लिए हिंदी को ही प्रयुक्त किया जाना ही शुभ जान पड़ता है।
                  राजीव थेपड़ा 
                  रांची, झारखंड

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