वैराग्य पथ - एक प्रेम कहानी भाग २०
असफलता किसी भी शक्तिशाली के मनोबल को गिरा देती है। वहीं सफलता किसी भी कमजोर के मनोबल में भी आशातीत बृद्धि होती है। फिर आत्मबल की शक्ति से शक्तिमान वह किसी भी बड़ी से बड़ी आपदा को पार कर जाते हैं।
आत्मबल से बली नारियों की शक्ति का आकलन किया जाये तो शुंभ और निशुंभ जैसे महाबलियों को रणभूमि में यमलोक पहुंचाने बाली नारियों को शक्तिहीन तो नहीं माना जा सकता है। भले ही असुरराज नारियों की भौतिक शक्ति को स्वीकार नहीं कर रहा था, फिर भी यह तो माना ही जा रहा था कि ये विद्रोही स्त्रियां किसी न किसी तरह से तो शक्तिशाली हैं। आत्मबल की शक्ति से अपरिचित असुरों के लिये शक्ति के दो ही रूप थे। भौतिक या शारीरिक शक्ति तथा दूसरी मायावी शक्ति।
शारीरिक रूप से स्त्रियों को शक्ति सम्पन्न मानना असरों को स्वीकार न था। वैसे तो शुंभ और निशुंभ ने भी मायावी युद्ध किया था। पर उसकी माया का प्रतिकार यही माना गया कि संभवतः ये स्त्रियां अनेकों तरीके की मायावी शक्तियों की स्वामिनी हैं।
असुर रक्तबीज भले ही महिषासुर और शुंभ और निशुंभ के समान शक्तिशाली न था। पर विभिन्न माया शक्तियों में उसकी बराबरी का कोई न था। माया से वह अनेकों रूप बनाने में सक्षम था। सही रूप की पहचान भी असंभव होती थी। मायावी शरीरों से गिरते रक्त की विंदुओ से उतने ही और मायावी रूप रखता जाता था। एक से अनेकों रूपों में बढते जाने से विरोधियों का आत्मबल मिट जाता। रक्त के बूदों के बराबर रूप रख लेने की भ्रांति के कारण उसका नाम ही रक्तबीज हो गया था।
मायावी समझी जाती विद्रोही स्त्रियों को माया युद्ध में ही परास्त करने तथा उन्हें भ्रमित कर बंदी बनाने के लिये असुरों की सेना में जो सबसे अधिक उपयुक्त लग रहा था - वह रक्तबीज ही था। असुरराज महिषासुर की अपेक्षा का बोझ लिये रक्तबीज जब नारियों के विरुद्ध समर में आया तब एक बार तो उसने अपनी माया का लोहा ही मनबा लिया। देवलोक में देव भयभीत हो सुरक्षित स्थानों के लिये भाग रहे थे।
रक्तबीज न तो गौरी के अस्त्रज्ञान से परास्त हो रहा था और न ही कात्यायनी के हाथों उसका अंत हो रहा था। अकेला रणभूमि में आया रक्तबीज अपनी माया रक्त विदुओं द्वारा अनंत मायावी रूप रख चुका था।
" हमेशा अच्छाई का मार्ग ही उपयुक्त नहीं। असुरों के नाश के लिये असुर भी बना जाता है। जिन्होंने जीवन में कभी भी मानवता की परवाह नहीं की, ऐसे दानवों के प्रति मानवता का त्याग भी किया जाता है। जीवन भर हैवानियत से सीधे साधे लोगों को आतंकित करते रहे लोग केवल हैवानियत से ही भयभीत होते हैं। धर्म स्थापना के लिये अधर्म का मार्ग अपनाना ही होता है। नदी में डूबते की रक्षा हमेशा नदी के नीर में उतरकर ही की जाती है। "
गौरी और कात्यायनी इस समय भद्रकाली की बातों को सुन रहे थे। हालांकि दोनों ही भद्रकाली के विचारों से सहमत नहीं थीं पर इस समय और कोई उपाय ही न था। रक्तबीज के नये नये रूप रखने से धर्म की राह पर चल रहे मनुष्य निराशा के भंवर में ही डूब रहे थे। अब धर्म की रक्षा के लिये अधर्म को भी हथियार बनाना आवश्यक बन रहा था।
फिर भद्रकाली ने अपनी शक्तियों से रक्तबीज के अनंत मायावी रूपों को नष्ट कर दिया। उन मायावी रूपों से गिरते रक्त को भूमि पर गिरने नहीं दिया। अपितु खप्पर में उस रक्त विंदुओ को एकत्रित कर उनका पान करती गयीं।
पाप से घृणा करने पर पापी से भी स्नेह करने की धारणा को पार कर घोर पापी से घृणा करने की धारणा भले ही उपयुक्त न लगे पर सत्य में अव्यावहारिक भी नहीं है। सत्य तो यही है कि मनुष्यों के रक्त फैलाकर जो मानवता को लगातार कलंकित करते रहते हैं, उनके अंत के लिये मानवता की धारणा को भी तिलांजलि देना आवश्यक बन जाता है।
लगता नहीं कि माता भद्रकाली ने किसी का भी रक्त पान किया होगा। मायावी असुर के शरीर से निकला असुर निश्चित ही मायावी था। निश्चित ही रक्त जैसा दिख रहा वह द्रव कोई अभक्ष्य नहीं था। फिर मायावी रक्त के अभाव में मायावी असुर कमजोर पड़ता गया। अपनी माया के लगातार विफल होता देख असुर रक्तबीज का मनोबल गिरता गया। फिर कात्यायनी के साथ संग्राम में रक्तबीज मृत्यु को प्राप्त हो गया।
निश्चित ही धर्म स्थापना के लिये अधर्म के प्रयोग को गलत नहीं कहा जा सकता है। निश्चित ही हैवानों के विरुद्ध हैवानियत का प्रयोग स्वीकार होता है। फिर भी अधर्म और हैवानियत की राह पर चलना उचित नहीं है। सामान्य परिस्थितियों में तो कभी भी नहीं। यदि हर उद्देश्य की प्राप्ति के लिये अधर्म को अस्त्र बनाया जाता है, उस समय स्थिति भयानक ही रहती है। अधर्म और हैवानियत अनेकों बार स्वभाव का अंग बन जाते हैं। फिर उद्देश्य की पूर्ति के बाद भी व्यवहार स्वाभाविक रूप में नहीं आता है। नीचे गिरा हुआ नीर बहुत अधिक प्रयासों के बाद ही ऊपर उठता है।
लगता है कि विभिन्न पौराणिक कहानियाँ मात्र रूपक हैं। मानवों को शिक्षा देने के लिये बनायी गयीं कथाएं जीवन के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करती है।
अपरिहार्य परिस्थितियों में अधर्म को अपना आचरण बनाने बाली माता भद्रकाली को फिर अधर्म से धर्म की राह पर वापस लाने में बहुत कठिनाई आयीं। सत्संगति के उपरांत भी एक बार अधर्म को स्वीकार कर उसी अधर्म को अपना चरित्र बना लेने तथा महादेव के प्रयासों से माता भद्रकाली का फिर से धर्म की राह पकड़ने की कथा निश्चित ही यही सिद्ध करती है कि मनुष्य हमेशा यत्नपूर्वक खुद के मन को बुराइयों से बचा कर रखे। इंद्रियां बहुत शक्तिशाली होती हैं। मनुष्य के मन को बहुत जल्दी ही अपने वश में कर लेती हैं। इंद्रियां संयमियों के संयम को, योगियों के योग को, ज्ञानियों के ज्ञान को पल भर में नष्ट कर देती हैं। आवश्यक है कि हर पल अच्छे विचारों का चिंतन किया जाये। पल भर की कुसंगति किसी की भी बुद्धि को नष्ट कर देती है। फिर केवल ईश्वर की कृपा ही मनुष्य को पतन से बचा सकती है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
Comments
Post a Comment