आधुनिक हुए हम
बचपन की यादें तब और ज्यादा मन में हिलोरें मारने लगती हैं ,जब बेफिक्र बचपन को उछलते कूदते देखती हूं ,
तुरंत इच्छा होती है उस आगन में पहुंच जाने की जहां हम सब मोहल्ले के बच्चे धमाचौकड़ी मचाते थे ,औपचारिकता शब्द की उम्र अभी बहुत छोटी है,क्योंकि उस समय हम औपचारिकता से परिचित न थे ।
पर आज के वातावरण में औपचारिकता बड़े व्यापकता से जड़े जमाती जा रही है ,
हमें नहीं पता था किसके घर खाना खाना है और किसके घर खाना नहीं खाना है ,
सब बच्चों के घर आपस में सबके अपने होते ,घर में बच्चा ना दिखाई देने पर मां आसानी से कह देती अरे खेल रहा होगा यही कहीं, आज की तरह बच्चे के लिए बेचैनी बढ़ाने वाला माहौल ना होता ।
पिट्ठू गरम,आइस पाइस, छुपन छुपाई, इक्कड़ दुक्कड़ खेल से मचने वाला शोर लोगों को डिस्टर्ब ना करता था।
पतंग उड़ाते बच्चों को ढील दे ढील वो काटा वो काटा सुनकर बड़े लोग भी पतंग उडाने को उत्साहित नजर आते और आ जाते पेंच लड़ाने के किस्से लिए छत पर ।
कटी पतंग को जोड़ने के लिए पका आलु और चावल की डिमांड आज भी रोमांचित करती है ।
घरों में टीवी और मोबाइल ना था पर उसकी जगह सबके पास अपने आपको सबके साथ साझा करने के लिए बात और यादों का बटवा भरा रहता था और खुल जाता बीचो-बीच आगन में हंसी की खनक वातावरण को झंकृत करती आज भी सर्दियों की बहुत याद आती है जब मोहल्ले की सभी महिलाएं अपना काम निपटा कर बैठ जाती स्वेटर बनाने के लिए और धूप सेकने के बहाने मन में छिपी छोटी मोटी सीलन को भी धूप दिखा बाहर कर देतीं ।
हमारे बचपन में आंटी अंकल शब्द प्रचलित नाते कोई चाची थी तो कोई ताई और कोई होती जगत बुआ जो सबकी बुआ होती औरतें भी आपस में जीजी ,बहन जी या छोटी को उसके बच्चे के नाम के साथ बुलाते ,
हर छत पर मूली, गाजर, हरी मिर्च के अचार छतों पर खुशबू बिखेर रहे होते,
किसी की रसोई में बनी चाय का छत पर ही, आपस की छतों पर आदान-प्रदान हो जाता।
आज कल की तरह पूछ पूछ कर ,दो कप चाय बनानी है तो दो ही चाय बनेगी,वाली पता ना थी ।
क्या जादू था हम से पहले वाली पीढी की महिलाओं के हाथों में की, अंदाजे से ही मिर्च मसाले डालकर बड़े बड़े परिवारों के लिए सब्जी दाल बना कर और उसको शालीनता और उसने के साथ पूरे परिवार को भोजन करा देती ।
अचानक आए मेहमानों को भी भोजन करा दिया जाता , ऐसा लगता मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद की सुगंध सर्वत्र व्याप्त हो रही हो ।
मोहल्ले में किसी भी घर के बेटे बेटी की शादी की तैयारी आपस में सब मिलजुल कर हर्षोल्लास के साथ करते। लड़कियों की शादी में ससुराल भेजने के लिए ब़डी, मंगोड़ी ,पापड़ की सारी महिलाएं कर मिलकर बनाती ।
छोटे-मोटे आपस में उलाहने तकरार का कारण ना बनते, लड़कियों की शादी में पूरे मोहल्ले के छोटे बडे ,बड़े से बड़े काम आपस में निपटा लेते ,
बारात का स्वागत करते हुए मोहल्ले के सभी बड़े लोग आगे आगे रहते ,लड़की की शादी में बुलावे का इंतजार ना होता ,क्योंकि वह सबकी अपनी बेटी होती ।
शादी में मन मुटाव तक बडे बुजुर्गो की समझदारी से शान्त हो जाता ।
आजकल की रहनशैली में एक प्रथा बहुत गहरी जड़े जमा रही है ,कि हमें क्या लेना देना यह उनका मामला है, कह किसी के बीचबचाव से बचते हैं ।
ऐसी परम्परा का नामोनिशां न था ।आज अपने से अलग जो भी है ,वह दूसरा है ।
अपना भाई-बहन ,बेटा बेटी सब के मामले उनके अपने मामले कहे जाते हैं ।कौन सी परंपरा की जडे पोषित की जा रही है, इसका भविष्य क्या सोच कर लोग,इसकी तरफ बढ़ गए हैं ।एक विचित्र विषय हो सकता है किसी से हमारे विचार नहीं मिलते तो ,वह बिना कुछ सोचे तुरंत अलग होना बेहतर समझते हैं ।
आधुनिक शैली में एक विचित्र विषय हो सकता है ,यहां सब अपने आप को श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ समझते हैं
जया शर्मा( प्रियंवदा)
फरीदाबाद (हरियाणा )
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