फागुन भाग २
एक साल से थोड़ा ज्यादा ही गुजरा था जब रमतो की बरात में जाने का नौता आया था। सुजान का मन बल्लियों उछल रहा था। पर ऐन बक्त पर उसके अरमान मिट्टी में मिल गये। वास्तव में यह हर जिम्मेदार व्यक्ति की कहानी है। चाहे घर हो या कार्यक्षेत्र, कुछ के जिम्मे बस जिम्मेदारी ही आती हैं। फसल को समय पर पानी देना जरूरी है। जिस समय सुजान के हमउम्र रमतो की शादी में नाच रहे थे, उस समय सुजान उदास हो अपने खेतों पर बैठा सिचाई की व्यवस्था कर रहा था।
वैसे इस बारे में सुजान के घर बालों की भी पूरी गलती नहीं थी। वैसे सुजान के बारात में जाने की पूरी तैयारी थी। पर ऐन मौके पर जब रज्जो ताई ने सुजान के बाबूजी से हाथ जोड़ अनुरोध किया। पिता रहित रमतो की बरात में चाचा तो रहना ही चाहिये। फिर सुजान की बरात की टिकट कट गयी। वैसे भी यह कोई सरकारी नौकरी तो नहीं थी कि महीने के अंत पर बंधी तनख्वाह आती रहे। किसानों की खेती तो तब सार्थक होती है जबकि फसल की बाजिद कीमत मिल जाये। खेतों में खड़ी फसल तो विधाता की होती है जिसे किसान अपने पुरुषार्थ से अपनी बनाता है।
बरात से वापस आये युवकों के मध्य सुंदर दुल्हन की चर्चा थी। सुजान का मन भी एक बार दुल्हन को देखने का था। सुंदरता को देखने की इच्छा सभी को होती है। पर यह संभव न था। पर जल्द संभव हो गया। फागुन का महीना सुजान के लिये अवसर लेकर आया। सिंदुरिया भाभी से होली खेलने के बहाने खोजे जाते। होली का त्यौहार सुजान और सुंदरिया को कुछ नजदीक ले आया। हालांकि इस नजदीकी में कुछ भी अपवित्रता न थी।
कभी कभी सुजान के मन में रमतो के लिये ईर्ष्या भी उठती। खुद कैसी बैढिंगी शक्ल सूरत का। और दुल्हन इतनी सुंदर। सचमुच कभी कभी ईश्वर कुछ नहीं देखते हैं। पर लड़की के घर बालों को तो देखना चाहिये।
सुंदरिया के घर बालों में था ही कौन। बचपन में ही उसके माॅ बाप गुजर गये। एक अनाथ लड़की। रिश्ते के चाचा चाची ने पाली। एक नौकरानी जैसी स्थिति में। शायद रमतो के लिये रिश्ता भी सुंदरिया का नहीं आया था। अच्छी खेती के मालिक रमतो के लिये रिश्ता तो सुंदरिया की चचेरी बहन का आया था। पर जब रज्जो ताई लड़की देखने गयीं तो सुंदरिया की सुंदरता पर रीझ गयीं। दूसरी तरफ चाचा की लड़की को रंग रूप में कम रमतो पसंद नहीं था। इस तरह सुंदरिया इस गांव की बहू बन गयी।
विचारों के सागर में गोता खाते सुजान को फिर उसका मन धिक्कारने भी लगता। आखिर रमतो में क्या कमी है। अच्छा खासा लड़का है। पूरा दो सौ बीघा जमीन का मालिक है। दुल्हन से बहुत प्रेम भी करता है। ताई भी बहू पर जान लुटाती है। केवल सुंदरता का क्या मोल। मुख्य तो सम्मान है। सुंदरिया के लिये रमतो से अच्छा दूल्हा भला कौन हो सकता है। कोई भी तो नहीं।
वैसे गांव की बहू के नाते सुंदरिया ज्यादातर पर्दे में रहती। पर कुछ समय रज्जो ने ही उसे छूट दी तो वह एक हसती खेलती गुड़िया की तरह गांव के दूसरे घरों में भी आने जाने लगी। रज्जो ताई सचमुच क्रांतिकारी थीं। व्यर्थ परिपाटी को मिटाना जानती थीं। विरोध का प्रतिउत्तर देना जानती थीं। और सुंदरिया अपनी वाणी की मिठास से ही विरोधियों के तेवर ढीले कर देती।
सचमुच समय ज्यादा तेज गति से आगे बढता है। अब फिर से फागुन आया है। गांव में होली की धूम है। पर गांव में क्रांतिकारी के रूप में जानी जाती रज्जो ताई अब कठोर से भी ज्यादा कठोर सास हैं। उनके शव्द कोश में अब बहू के लिये गालियों की एक लंबी सूची है। कभी बहू की आंख में आंसू न देख सकने बाली रज्जो ताई को अब खाना ही तब पचता है जबकि सुंदरिया की आंखे रो रोकर लाल न हो जायें।
सचमुच विधाता अधिक निष्ठुर है। दुखी के जीवन में कुछ क्षणों के लिये सुख देकर फिर दारूण विपत्ति दे देता है। उससे भी अधिक दुखद है कि इनका प्रतिकार करने बाला कोई नहीं है। जब हमेशा सच के साथ रहने बाली रज्जो ने ही झूठ का दामन पकड़ लिया तब फिर किसी अन्य से क्या उम्मीद। उम्मीद का सूरज अस्त हो चुका है। पर शायद फिर से उदित होने की तैयारी कर रहा है। यदि यह सत्य नहीं तो सुजान को विकलता क्यों। पूरा गांव होली के रंग में डूबा हुआ है। वहीं वह भी डूबा है एक प्रेम की दरिया में। जहाँ उसके प्रेम की पात्रा गुजर रही है दारुण परिस्थितियों से। उससे बिना कुछ कहे भी उसे पुकार रही है। पर वास्तव में इस पुकार को सुन उसपर प्रतिक्रिया करना कब आसान है। यह तो खुद एक क्रांति है। अभी तो सुजान का मन क्रांति लाने या तटस्थ रहने के निर्णय के मध्य झूल रहा है। कभी उसे क्रांति पूकारती है तो कभी स्वार्थ रूपी तटस्थता।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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