फागुन भाग ४
भगवान सूर्य नारायण आसमान तक आ गये और सुजान अभी तक बिस्तर पर ही था। रात बहुत देर में वह अपने घर आया था तो जगने में देर हो गयी। वैसे सच्ची बात तो यह थी कि उसे नींद ही सुबह के समय आयी थी। ज्यादातर समय तो वह बिस्तर पर करवट बदलता रहा था। ज्यादातर समय वह बाबा की बातों की समीक्षा कर रहा था। वैसे वह खुद उन बातों को सही मान रहा था फिर भी उसका साहस उसका साथ नहीं दे रहा था। बड़े से बड़े सांड़ को फसल से भरे खेत से भगाने का साहस रखने बाला युवक अपनी प्रेम की राह पर आगे बढने का साहस नहीं कर पा रहा था। सचमुच मुख्य साहस तो विचारों को मूर्त रूप देने में है। फिर उसे तो दूसरे प्रेमियों से भी अधिक साहस दिखाना हो सकता है। प्रेम की अधिकांश कहानियाँ छोटे बड़े, मजहब और जाति के बंधनों में बंध अपना अस्तित्व भुला देती हैं। पर सुजान की प्रेम गाथा तो एक ऐसी गाथा थी जिसकी पात्रा ही वैधव्य का दंश भोग रही थी। खुद निर्दोष होने पर भी अपनी पति की मृत्यु की दोषी समझी जा रही थी।
सुजान के सामने बार बार सुंदरिया का चेहरा आता। जिस दिन रमतो भैय्या बीमार हुए थे, वही तो उन्हें अस्पताल लेकर गया था। साथ में सुंदरिया भी जिद कर चली थीं। पूरे मार्ग अपने पति का माथा दबाती रहीं। पर विधि का विधान कि जैसे ही टैक्टर अस्पताल के द्वार पर रुका, रमतो भाई इस संसार से विदा हो गये। फिर सुंदरिया के रुदन से कस्बे का आकाश गूंज रहा था।
सोते सोते सुजान को रमतो भाई भी दिखे। एकदम कमजोर और उदास से। सुजान को उनके पास जाने में भय लगा। सुना है कि मृतक मन की बात जान लेते हैं। और अब मन की बात मन में तो रही नहीं। कुछ घंटे पूर्व ही तो बाबा से वह अपने प्रेम के विषय में बोल रहा था। कहीं रमतो भाई इससे नाराज तो नहीं हो गये।
रमतो सुजान से वास्तव में नाराज था। पर सुंदरिया से प्रेम करने के लिये नहीं। प्रेम करने के बाद भी उसे पल पल तड़पते देखने के लिये।
मान मर्यादा और परिपाटी संभवतः इस संसार का ही विषय है। कुछ अपरिहार्य कारणों से निर्मित ये परिपाटियां कई बार मनुष्य को इस तरह बांध देती हैं कि सांस लेना भी कठिन होता है। आत्मा तो शुद्ध, आनंदमय और बंधन मुक्त होती है। फिर आत्मा कब किस तरह किसी को बंधन में डालने बाली परिपाटी का समर्थन कर सकती है। शुद्ध आत्मा केवल प्रेम फैलाना ही जानती है।
विगत दसियों वर्षों से सुजान भी बाबा को गलत मानता आया था। पर आज उसे लग रहा था कि बाबा गलत कहाँ है। प्रेम तो ईश्वर का रूप है। प्रेम ही पूजा है। सत्य तो यही है कि खुद ईश्वर के अवतार कथाओं का सार भी तो प्रेम ही है।
फिर अब सुजान अपनी प्रेम गाथा को आगे बढ़ाने को तैयार था। दिन में उसे मौका भी मिल गया। सुंदरिया पानी भरने जा रही थी। कभी अपनी हंसी से रौनक करने बाली सुंदरिया यत्न पूर्वक खुद को रोने से रोके हुए थी।
" सुंदरिया.. आ.. आ भाभी ।"
पति के निधन के बाद पहली बार सुंदरिया को किसी ने आवाज दी थी। हमेशा सुजान के मुख से खुद को भाभी सुनती आयी सुंदरिया के लिये उसके नाम से पुकारा जाना दूसरा बड़ा अचरज था। वह रुके या न रुके, इसका निश्चय भी नहीं कर पा रही थी। विधि की त्रासदी झेलती आयी एक बाला स्वयं को ही एक त्रासदी समझने लगी थी। फिर उचित है खुद ही उस त्रासदी को झेलना। स्वयं की त्रासदी में किसी अन्य को साझी बनाना सुंदरिया को उचित न लगा।
सुजान की बात को अनसुना कर आगे बढती सुंदरिया को सुजान से आगे बढकर रोक लिया। फिर एक तरफ से अपने मन के जज्बात बोल दिये। सुजान नहीं जानता था कि इसका क्या परिणाम होगा। सुंदरिया सुनकर अनसुना न कर पायी। उसके नैत्रों से अश्रु विंदु उसके गालों पर लुढ़कने लगे। सुजान समझ न पाया कि यह उसके प्रेम निवेदन की स्वीकृति है अथवा अस्वीकृति।
जैसे सूखी घास में जरा सी अग्नि फैल जाती है, उसी तरह एक विधवा के लिये किया प्रेम निवेदन और विधवा द्वारा उस निवेदन को सुनते रहना जंगल में फैली अग्नि की भांति फैल गया। रूढिवादिता की अग्नि एक घर से दूसरे घर तक फैलती गयी।
सुजान को उसके घर कड़ी फटकार मिली तो दूसरी तरफ रज्जो ने सुंदरिया की जमकर पिटाई की। वैसे भी अब उसके हाथ सुंदरिया पर ज्यादा बरसते थे।
सुजान एक शिष्ट और संस्कारी बालक, इस तरह कैसे। संदेह की सुई एक बार फिर से ढोंगी बाबा की तरफ उठी। कल रात सुजान के साथियों ने जब पुष्ट कर दिया कि रात में सुजान उसके साथ अधिक देर न था, फिर क्या था। गांव के युवक को विधवा से इश्क लड़ाने की शिक्षा देने बाले बाबा को उचित शिक्षा देने को बहुत लोग तैयार थे।
कुछ देर बाद मढैया में बाबा के चीखने की आवाज गूंज रही थी। इतने अपमान और दर्द को सहकर भी बाबा कहीं जाने को तैयार न लगा। थोड़ी देर बाद दर्द से कराहते हुए धीरे धीरे उस टूटी मढैया को फिर से सही कर रहा था। हालांकि इस समय उसका शरीर साथ नहीं दे रहा था।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
Comments
Post a Comment