यात्रा झांसी की



मैं बीस साल की नवयुवती थी,
जब पहली बार गई थी झांसी।

पहला कदम पुलकन के साथ,
कि लक्ष्मीबाई थी यहां की वासी।

एक चौराहे पर दिखी प्रतिमा,
हाथ खड्ग और पीठ पर बालक।

दिल में मर्दानी को किया नमन।
धन्य झांसी जिसकी रानी थी रानी पालक।

किला लगा मानों पहाड़ी को तराश,
आकार दिया हो महल का।

जहां कभी वैभव,सैन्य शोभित था,
अब वीरानी है बिना चहल का।

देखे कई तोप,फव्वारे,मंदिर मर्दानी का।,
एक सुरंग ग्वालियर को जाता था।

हवादार झरोखे और आमोद उद्यान,
एक चित्र मर्दानी की सुंदरता दर्शाता था।

इस मासूम बच्ची में इतना साहस,
देखकर अथाह हैरानी होती थी।

एक बड़े पट्ट पर मर्दानी की,
श्रीमती चौहान द्वारा रचित एक पोथी थी।

यह यात्रा सचमुच सुनहरी थी।
इसमें त्रिकोण नहीं बहुकोण दिखती दुपहरी थी।
       -चेतना सिंह,पूर्वी चंपारण

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