दुनिया के रंग भाग २५ - भविष्य की योजना

 

  रात में खुले आसमान के नीचे शयन भला कब आसान होता है। जैसे जैसे रात्रि बढ रही थी, मौसम में ठंडक भी बढती जा रही थी। हालांकि जाड़े का मौसम अभी शुरू नहीं हुआ था। फिर भी इतना जरूर था कि खुले में सोना आसान नहीं था। 

  आज हम कितना भी विकास का दावा कर लें फिर भी एक सत्य है कि आज भी अनेकों निर्धन जाड़े की कंपकफाती ठंड में कांपते हुए फुटपाथ पर रात गुजार देते हैं। आज भी अनेकों पूस की रात के हल्कू मात्र अग्नि प्रज्वलित कर रात्रि व्यतीत कर देते हैं।

   जो इंद्रियों को जीत ले, वही सन्यासी है ।पर सन्यास के नाम पर किसी आश्रम में निवास करते आये सन्यासियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है। भक्तो के चंदे से प्राप्त धन से आश्रम की सारी मूलभूत सुविधाएं संचालित होती हैं।

   सोहन को उम्मीद न थी कि वह रात में इस तरह घोड़े बेचकर सो पायेगा। कुछ घड़ी बाद उसे जगकर आग की व्यवस्था करनी होगी। पर ऐसा नहीं हुआ। आज उसे ठंड का आभास नहीं हो रहा था। मन ही मन जितेन्द्रिय होने का एक भ्रम होने लगा।

   अभी भगवान सूर्य का आगमन नहीं हुआ था। सोहन की आंख खुलीं। उसने खुद को एक गर्म और मुलायम कंबल में पाया। सत्य यही था कि गहरी नींद में सोते सन्यासी को कोई कंबल उढा गया था। और जिसने वह कंबल उढाया था, वह स्त्री नजदीक ही बैठी थी।

   खुद के सामने सौदामिनी को देख सोहन सकपका गया। वास्तव में अभी वह सौदामिनी का सामना करने को तैयार ही न था। उसे लगता था कि उसने सौदामिनी को सहारा न देकर जो अपराध किया था, उसे उसी अपराध का दंड मिला है। आज भी उसे सौदामिनी वही असहाय विधवा लग रही थी जो उससे सहारे की याचना कर रही हो। इतनी रात में सौदामिनी द्वारा उसकी चिंता करने की भी सन्यासी सही व्याख्या नहीं कर पाया।

   रात में लक्ष्मी ने पढाई करते समय एक सन्यासी को अपने चबूतरे पर सोया देखा। उसी ने अपनी माॅ को बताया। हालांकि दूर से सौदामिनी उसे पहचान नहीं पायी। पर जब वह नजदीक आयी तब उसने सोहन को पहचान लिया। ठंड में सिकुड़ते युवक को गर्म कंबल उढा दिया। खुद पूरी रात जगी रही। वैसे भी इस समय ससुर जी सो रहे हैं। सन्यासी का क्या ठिकाना। कहीं रात में ही न निकल ले। एक बार पिता और पुत्र की भेंट होनी चाहिये। इतने वर्षों में वह भले ही अपने ससुर जी  को सहारा देती आयी है फिर भी लगता है कि वह पुत्र की कमी पूरी नहीं कर पायी है। प्रेम निर्विकार का रूप रख चुका था। 

    सोहन को जगते देख सौदामिनी उसके नजदीक आ गयी। सोहन के विचारों से अपरिचित उसे सोहन वह पुत्र लगा जो कि भूल से अपने परिवार से दूर चला गया। शायद उसे बार बार अपने घर की याद आती रही। शायद वह बार बार घर आना चाहता था। पर आ न सका। संकोच उसे रोकता रहा हो। आज जब वापस आया है तब भी उसने घर का दरवाजा नहीं खटकाया। यह तो अच्छा रहा कि लक्ष्मी ने देख लिया। पता नहीं कि इससे पूर्व भी कभी इसी तरह आकर चुपचाप न चले गये हों। 

  " जग गये लाला जी। चलिये अब घर चलिये। बाबूजी और मम्मी जी आपकी हमेशा याद करते रहते हैं। आइये। अब भीतर कमरे में सो जाइये। बाबूजी अभी सो रहे हैं। उनके दुख सुख जाने बिना कहीं न जाना।" 

  सोहन मंत्रमुग्ध सा सौदामिनी के पीछे चला आया। हालांकि यह उसी का घर था पर आज वह इस तरह प्रवेश कर रहा था कि मानों किसी अपरिचित के घर में आ रहा है। पर घर में घुसते ही उसे पुरानी यादें आने लगीं। घर का कौना कौना उसके बचपन की घटनाओं की गवाही दे रहा था। 

  सूरज की पहली किरण ठाकुर सुजान सिंह के घर में खुशियों की बहार ले आयी। जिस बेटे को देखे वर्षों बीत चुके थे, आज वह घर आ गया। संभव है कि वह संसार से वैरागी हो गया है। अपना जीवन जिस तरह जीये। उससे आगे की बात यह है कि वह कुशल से है। संभव है कि वह फिर से सन्यास की राह पर चला जाये। पर उसके मन में हमारे लिये प्रेम है। तभी तो वापस आया है। भविष्य में क्या होगा, अब यह गौढ है। वर्तमान में यही सत्य है कि सोहन कुशल से है। 

  गांव के मंदिर में आज पूरे परिवार ने एक साथ आरती की। पूरे गांव में प्रसाद बांटा गया। अनेकों लोग सोहन से मिलने आये। सभी ने सोहन की कुशलता पूछी। हालांकि अधिकांश की बातों में व्यंग्य ही अधिक था। 

  घर के एक कमरे में ठाकुर सुजान सिंह अतिथियों की आवभगत कर रहे थे। ठाकुर चूड़ामणि कुछ अधिक आयु के अनुभवी थे। अनेकों साल गांव के प्रधान रहे थे। वैसे वह इस बार भी प्रधान बन जाते। पर सरकार का नियम। इस बार सीट अनुसूचित जाति के लिये रिजर्व हो गयी। हालांकि आज भी गांव के वही अघोषित प्रधान हैं। ठाकुर सुजान सिंह को इशारे से एक तरफ ले गये। 

  " अब तो बहुत खुश हो ठाकुर। आखिर बेटा वापस आ गया है।" 

  " सब ईश्वर का आशीर्वाद है भाई साहब।" 

" सुनो। कुछ अनुभव की बात बता रहा हूं। जल्द बेटे के पैर में जंजीर डाल दो। इसे घर गृहस्थी में घुसा दो। किसी भी तरह इसका विवाह कर दो। तुम्हें तो इधर उधर देखने की भी जरूरत नहीं है। घर में विधवा बहू बैठी है। उसी के साथ इसकी गांठ जोड़ दो।" 

  कभी जब ठाकुर सुजान सिंह ने सौदामिनी का विवाह करने की बात की थी, उस समय यही ठाकुर चूड़ामणि भारतीय सभ्यता के रक्षक बन कर आये थे। आज वह वही बात कर रहे हैं।लगता है कि स्त्रियों को सहारा देने की मानसिकता समाज में रही ही नहीं है। पुरुष को सहारे की चाह में आज उसका भी समर्थन किया जा रहा है जिसका कभी विरोध किया था। क्योंकि उस समय एक स्त्री की जरूरत थी। आज पुरुष की जरूरत है। 

  हालांकि अब ठाकुर सुजान सिंह जानते थे कि अब उससे आगे की बात है। सौदामिनी आदर्शों के जिस शिखर पर खड़ी है, वह उससे नीचे नहीं उतरेगी। फिर भी एक बार उससे पूछने में दिक्कत ही क्या है। निश्चित ही एक स्त्री को कभी भी सहारे की आवश्यकता नहीं होती है। पुरुष ही कमजोर होता है। 

  ठाकुर सुजान सिंह अभी तो नवीन परिस्थितियों की समीक्षा कर रहे हैं। भविष्य के लिये जल्द कोई भी योजना नहीं बनाना चाहते। पर सत्य यह भी है कि भविष्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भविष्य को हमेशा ध्यान में रखा जाता है। 

क्रमशः अगले भाग में
 दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'

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