दुनिया के रंग भाग २४ - यथार्थ सन्यास
ठाकुर साहब और जानकी देवी अब बड़ी बहू संध्या के साथ रहने लगे। दोनों को ही एक दूसरे से लाभ हो रहा था। जहाँ बुजुर्ग दंपति को बहू से सहयोग मिल रहा था। वहीं संध्या को भी जीवन में पहली बार सहयोग मिला। अन्यथा भागमभाग की जिंदगी में वह खुद जीना भी भूल चुकी थी। प्रवेश भी दादा दादी के साथ बहुत खुश था। ठाकुर साहब नाती को स्कूल छोड़ और ले आते। बाजार के भी छोटे मोटे काम खुद कर देते। जब शाम को संध्या ड्यूटी से वापस आती, उसे अक्सर घर में शाम के भोजन की तैयारी पूरी मिलती। छोटे छोटे सहयोग से सभी का जीवन सुखी बन चुका था। वैसे संध्या बहुत समय से फौज में नौकरी करती आयी थी, इस समय भी पुलिस विभाग में नौकरी करती थी, फिर भी वह कोशिश करती कि घर पर अपना पहनावा एक बहू जैसा रखे। हालांकि ठाकुर साहब और जानकी देवी ने उसे मनमुताबिक कपड़े पहनने की आजादी दे रखी थी। पर एक सत्य यह भी है कि आजादी का भी एक सार्थक गणित होता है। जरूरत से अधिक आजादी चाहने बाले अक्सर कठिनाइयों में घिर जाते हैं। जीवन के इस मोड़ पर संध्या को जो प्रेम, और सुख मिला है, उसे झूठी आजादी के लिये दाव पर लगाना कभी भी समझदारी नहीं लगती।
समाज में कुछ दिन ठाकुर साहब की तीखी आलोचना हुई। धीरे-धीरे सब शांत होते गये। साहस के सामने सभी झुकते हैं। ज्यादा तो नहीं, पर अब उन्हीं आलोचकों में कुछ ठाकुर साहब के प्रशंसक भी बन गये। आखिर जब आज के समय में कोई खुद के घर में नियंत्रण नहीं रख सकता है तो दूसरों पर ज्यादा अपनी राय थोपना कब ठीक है। निश्चित ही मनुष्य जब नयी राह बनाता है तो वह आलोचना का शिकार होता है। हर बदलाव का विरोध होता है। पर धीरे-धीरे उसके बनाया नवीन मार्ग भी सुनसान नहीं रहता। उस मार्ग पर भी कुछ जाते दिखाई देने लगते हैं।
आलोचना का प्रारूप बदल चुका था। अब संतोष और प्रेम की आलोचना शुरू हो चुकी थी।कैसे बेटे हैं। खुद के पास कोई कमी नहीं है। फिर भी माता पिता के लिये इनके घर में जगह नहीं है। वह भी इस अवस्था में। बड़ा बेटा बहुत होनहार था। उसने कुछ सोचकर ही अपना विवाह किया। उसकी पत्नी आज तक बूढों का ध्यान रखती आयी है। अब ठाकुर साहब और उनकी पत्नी को वही तो सहारा दे रही है। फिर बड़ा या छोटा कौन है।
हालांकि अभी भी संध्या का समर्थन करने बालों को कट्टर ठाकुरों के विरोध का सामना करना पड़ता। पर धीरे धीरे उन्हीं कट्टर ठाकुरों के परिवार में कुछ नयी सोच का समर्थन करने लगे। निश्चित ही समाज की सोच बदलती है। भले ही समय लग जाये।
अमावस की अंधेरी रात। वैसे भी गांवों में रात हमेशा अंधेरी लगती है। जब सारा गांव सो रहा था, एक सन्यासी गांव में घुस रहा था। वैसे वह दिन के उजाले में ही गांव के नजदीक आ चुका था। यदि वह चाहता तो शाम से पूर्व गांव में दाखिल हो सकता था। पर दिन में उसे गांव में घुसते समय लज्जा आयी। कोई न कोई तो उसे पहचान लेगा। उसे टोकेगा। इन परिस्थितियों का सामना करने को वह तैयार न था। यही सिद्ध करने के लिये पर्याप्त था कि सन्यासी जैसे वस्त्र धारण कर भी वह अभी सन्यास से दूर था। भला सन्यासी को किससे भय। यदि मन में कोई चोर बैठा हो तो निश्चित ही भय रहता है।
हाॅ। आज सोहन के मन में एक चोर ही बैठा था। आज वह चोर सहारा देने के बहाने से आया था। कभी जब उससे सहारे की आशा थी, उस समय उसने अपनी भाभी को माॅ कह दिया था। वैसे सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विधवा भाभी से विवाह करने में कोई दोष नहीं है। वास्तव में यही सबसे अच्छी व्यवस्था होती है। क्योंकि एक स्त्री अपने परिवार को मन से छोड़ नहीं सकती। साथ ही यदि संतान भी साथ में हो, उस समय तो विधवा पुनर्विवाह करना भी अक्सर घूरे पर लट्ठ मारना ही होता है। दूसरे परिवार में वह संतान अक्सर अपने हिस्से का प्रेम खो देती है। पर जब अपनी कामना की प्राप्ति के लिये भाभी को ही माॅ कह दिया तब फिर बात ही बदल गयी। निश्चित ही एक स्त्री मन में ऊंचाई को प्राप्त कर फिर नीचे नहीं गिरती। पुरुष तो अक्सर गिरता है। फिर जब कभी ऊंचाई थी ही नहीं तो गिरने की बात ही क्या।
ठाकुर सुजान सिंह और सुजाता को आज भी अपने बेटे सोहन का इंतजार है। इंतजार सौदामिनी को भी है। पर खुद के सहारे के लिये नहीं। इंतजार है उस पुत्र का जो कहीं भटक रहा है। हाॅ। सही कहा था सोहन ने। भाभी तो माॅ समान होती है। फिर देवर भी तो पुत्र ही होता है। अपने प्रेम में धोखा खाकर वह पुत्र न जाने कहाँ चला गया। वह जहाॅ भी है, ईश्वर उसे प्रसन्न रखे। अक्सर सौदामिनी की आंखें उस धर्म के पुत्र को स्मरण कर नम हो जाती थीं।
सोहन और सौदामिनी दोनों ही एक दूसरे का स्मरण करते। पर दोनों के स्मरण में बहुत अंतर होता। जहाँ सन्यास को रख सोहन अभी भी सन्यास की अवधारणा से दूर था। वहीं पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के बाद भी सौदामिनी मन से सन्यासिनी बन चुकी थी। शायद सोहन की वापसी का विधान भी इसी लिये बन रहा था कि वह जान सके कि सन्यास क्या होता है। अप्राप्ति की अवस्था में त्याग का ढोंग करने की अपेक्षा प्राप्ति की स्थिति में उसका त्याग करना ही सच्चा त्याग है। शायद यही सन्यास है। सन्यास वही है जबकि एक बार ऊपर उठकर फिर कभी पतन न हो।
घर का दरबाजा खटखटाने का साहस सोहन का न हुआ। वहीं चबूतरे पर अपनी चद्दर बिछाकर वह बैठ गया। बहुत देर आगे की सोचता रहा। सोचता रहा कि किस तरह सुबह अपने पिता का सामना करेगा। किस तरह माॅ की आंखों से गिरते आंसुओं को देख पायेगा। और किस तरह सामना करेगा उस नारी का जिसे मेरे पिता ने मेरे लिये चुना था। सोचते सोचते आंखें भारी होती गयीं। शरीर पर थकान हावी होती गयी। सन्यासी गहरी नींद में सो गया।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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