दादी मां
धवल केशराशि से आच्छादित
आंखों पर गोल गोल चश्मा चढ़ाकर
झुर्रियों भरे चेहरे के पीछे से
वात्सल्य की बरसात करती हुई
कमजोर हाथों की पकड़ में लेती हुई
अपने आंचल से मुंह पोंछती हुई
मम्मी के कोप से बचाने को
अपनी बांहों में समेटती हुई
पापा की कर्कश डांट के सामने
एक ढ़ाल की तरह खड़ी होती हुई
जो धुंधली सी तस्वीर नजर आती है
वह एक दादी मां ही हो सकती है ।
अपने हाथों से बूरे से रोटी खिलाती
दूध के गिलास को पकड़ाकर
गट गट पीने को प्रोत्साहित करती
कभी कहानियों का कभी गीतों का
कभी किसी और का प्रलोभन देती
वो दादी मां कैसी होती होगी
कल्पना ही कर सकता हूँ
क्योंकि हमने उन्हें कभी देखा नहीं
हम छ: भाई बहनों के आने से पहले ही
वे अनंत यात्रा पर महाप्रयाण कर चुकी थीं
पोते पोतियों को खिलाने का बड़ा चाव था उनका
मगर सारी इच्छाएँ किस की पूरी हुई हैं ?
मन का एक कोना खाली सा रहता है आज भी
मगर मेरे बच्चों ने अपनी दादी मां को देखा है
उन्होंने मेरी कल्पनाओं को साकार किया है
कभी कभी अपने बच्चों से भी रश्क होता है
कि जो पल उन्होंने अपनी दादी के साथ गुजारे
काश , हम भी कुछ पल अपनी दादी के संग बिताते
ममता के खजाने से कुछ मोती सहेज पाते
कभी रामायण पढ़कर सुनाते
तो कभी गीता के श्लोक बांचते
दादी मां की दुनिया निराली है
उनके आशीर्वाद से हर दिन दीवाली है ।
हरिशंकर गोयल "हरि"
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