कुमाता भाग १२ - पत्नी धर्म तथा प्रेम में बलिदान
विभिन्न कथाओं के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के पुत्र देव हुए तथा उनकी पत्नी दिति के पुत्र दैत्य या असुर हुए। इस तरह देव और असुर दोनों एक ही पिता की संतान भाई भाई हैं। देवों और असुरों के विचार कभी नहीं मिले। दोनों के मध्य अक्सर संग्राम होता रहा है। उसी संग्राम को देवासुर संग्राम कहा जाता है।
असुरों के कुल में उत्पन्न हिरश्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु के परम भक्त हुए। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर ही भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप में अवतार लिया था।
प्रह्लाद के पुत्र विरोचन के विषय में कथा है कि विरोचन व इंंद्र दोनों भाई ब्रह्मा जी के समक्ष एक ही प्रश्न लेकर उपस्थित हुए। " परम पिता। यह आत्मतत्व क्या है।"
" जो दर्पण में दिखता है, वही तो आत्मा है। इसी आत्मा को पुष्ट करना ही आत्मतत्व है।" परमपिता ने बहुत संक्षेप में उत्तर दिया।
कथा के अनुसार विरोचन परमपिता की बात का सही अर्थ न समझ पाये। दर्पण में दिखे शरीर को ही आत्मा समझ गये। जबकि इंद्र ने मन रूपी दर्पण में आत्मा को देखा।
कथा कुछ भी रहे। पर लगता है कि विरोचन आत्मतत्व को सही समझ गये थे। शायद इंद्र से भी अधिक सटीक तरीके से। शायद वह समझ गये थे कि जगत कल्याण के लिये कर्म करते रहना ही आत्मतत्व है। इसीलिये तो विश्व कल्याण के लिये उन्होंने अपना जीवन दान कर दिया।
देवासुर कथाओं में सबसे आगे विरोचन के पुत्र राजा बलि रहे हैं। राजा बलि देवासुर संग्राम सहित समुद्र मंथन की घटनाओं के साक्षी रहे हैं। देवों के अमृत से अजेय हो जाने के बाद भी देवों को पुनः पराजित कर त्रिलोकी पर अधिकार करने में सक्षम रहे हैं। भगवान के वामन अवतार के हेतु रहे हैं।
जब भगवान वामन ने मात्र दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया तब असुर राज बलि ने तीसरे पग के लिये खुद का मस्तक अर्पण कर दिया। सिद्ध हुआ कि असुर कुल में जन्म लेने बाले बलि न केवल परमभक्त हैं, अपितु सच्चे कर्मयोगी हैं। कथाओं के अनुसार महाराज बलि आज भी पाताल का राज्य सम्हाल रहे हैं। भविष्य के इंद्र भी वही हैं।
देवासुर की कथाओं में एक नाम वृत्तासुर का भी है। वृत्तासुर जिसने इंद्र का वैभव नष्ट कर दिया था, वास्तव में समत्व योग का बड़ा आचार्य था। जीत, और हार, मान और अपमान, जीवन और मरण में समान भाव रखने बाला था।
जहाँ एक तरफ अनेकों असुरों ने विभिन्न तरीकों से खुद को अध्यात्म मार्ग में देवों से भी श्रेष्ठ सिद्ध किया, वहीं इंंद सहित विभिन्न देव कुछ विवादित आचरणों के कारण निंदा के पात्र बने। इंद्रासन की चिंता में किये गये आचरणों से ऊपर महर्षि गौतम की परम सुंदरी पत्नी अहिल्या का छल से शील हरने बाले भी बने।
फिर क्या किसी कुल में जन्म लेना ही देव या असुर होने का आधार हो सकता है। देव क्या है, असुर क्या हैं तथा देवों और असुरों के मध्य होने बाला देवासुर संग्राम क्या है, यह तो खुद भगवान ही सही तरह से जानते हैं। मनुष्यों के वश की बात नहीं है।
यदि भगवान ही इस तथ्य को जानते हैं तो यथार्थ जो भी है, भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा ही होगा। कहना ठीक नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवां अध्याय जो देवासुरसंपदविभागयोग के नाम से जाना जाता है, वहीं इस गहन तत्व की सही सही मीमांसा मिलती है। अन्यथा कहानियों को पढ लेना अलग बात है।
देव और असुर तो वास्तव में मन के भाव हैं। जब मनुष्य केवल खुद का ही भला चाहता है, खुद की उन्नति के लिये दूसरों को भी कष्ट दे देता है, उस समय वह मनुष्य आसुरी भावों से युक्त होता है।
जिस समय मनुष्य परोपकार में खुद का अहित भी सहन करने को तैयार रहता है, उस समय वह देवत्व को प्राप्त होता है।
देवासुर संग्राम कहानियों का विषय नहीं है। अपितु यह तो प्रत्येक मनुष्य के मन में हमेशा होता रहता है। कभी स्वार्थ मनुष्य को गिराता है तो कभी परमार्थ उसे ऊपर उठाता है।
इस तरह देव, असुर और देवासुर संग्राम सब कुछ प्रतीकात्मक ही लगता है।
किसी नर के द्वारा देवत्व की राह पर बढना तभी संभव है जबकि उसकी स्त्री इस मार्ग में उसका साथ दे। परमार्थ के लिये जीने बाले मनुष्य को व उसकी पत्नी, बच्चों को सांसारिक दृष्टि से विभिन्न अभावों में जीना होता है।
अनेकों बार जब नर स्वार्थ के कारण दूसरों के हितों को भी छीनने लगता है, उस समय स्त्री का कर्तव्य यही है कि वह अपने पति का विरोध कर उसे सही राह दिखाये। स्त्री को समझना चाहिये कि वह पति का विरोध नहीं कर रही है, अपितु पति के मन में उठे आसुरी भावों का विरोध कर रही है।
इन प्रतीकात्मक सत्य को बताकर अब मूल कहानी पर वापस लौटते हैं। महारानी कैकेयी देवासुर संग्राम में अपने पति के साथ चल दी। जहाँ अपने पति की असुरों से रक्षा करना उसका प्रमुख कर्तव्य होगा।
दिति की संतान असुरों से अलग धरती पर एक ब्राह्मण कुल में जन्मा, महर्षि सारस्वत का वंशज, महर्षि पुलस्त का पौत्र रावण असुरों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। आसुरी विचार के लोगों ने रावण को ही अपना राजा मान रखा था। वैसे रावण देवताओं तक को युद्ध में हरा चुका था पर महाराज अज से युद्ध में हारकर उत्तर भारत से दूर ही रहता था। हालांकि उसने दक्षिण भारत में भी अपने अनुचरों खर और दूषण को नियुक्त कर रखा था। विश्व के विभिन्न हिस्सों के अनुचर उसके आदेश का पालन करते थे। जिस देवासुर संग्राम में महारानी कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गयी थी, उस युद्ध में सागर तट के उत्तर में रहते आये असुरों का मुख्य लक्ष्य भी देव तो न थे। इन्हीं महाराज दशरथ का पुत्र असुरों का नाश कर धर्म की स्थापना करेगा। इस देवासुर संग्राम में प्रत्यक्ष रूप से रावण की कोई भूमिका न थी। पर पर्दे के पीछे वही था। सागर के उत्तरी तट के असुरों ने रावण के निर्देश पर ही यह कदम उठाया था। शायद उन्हें अनुमान था कि देवों के मित्र महाराज दशरथ अवश्य आयेंगे। महर्षि वशिष्ठ की तपोशक्ति से दूर महाराज दशरथ के प्राणों के हरण की योजना थी। शायद वे इस तथ्य से अपरिचित थे कि किसी पति भक्ता स्त्री का तेज भी हर तरह से पति को विभिन्न आपदाओं से सुरक्षित रखने में सक्षम है। उसपर जब महाराज दशरथ को प्राणों से भी बढकर प्रेम करने बाली उनकी पत्नी महारानी कैकेयी साथ में हो तो भला महाराज दशरथ के प्राणों को किसका भय।
महारानी कौशल्या का आशीर्वाद सही सिद्ध हो रहा था। रण में कैकेयी के पराक्रम को देख देव, असुर और खुद महाराज दशरथ चकित थे। कैकेयी के वाणों का शिकार असुर अपने प्राण बचाकर भागना चाहते थे।
रण अनिश्चितता भरा कहा जाता है। महाराज दशरथ और कैकेयी के वाणों की वर्षा से भाग रहे असुरों को एक मौका मिल गया। महाराज का सारथी रण में मारा गया। हालांकि युद्ध नीति के अनुसार दूसरे सारथी के आगमन तक महाराज पर प्रहार नियम विरुद्ध था। पर असुरों की क्या युद्ध नीति। उनकी नीति तो किसी भी तरह विजय प्राप्त करना ही थी।
महारानी कैकेयी ने दुहरी भूमिका अपना ली। एक तरफ वह रथ के घोड़ों को नियंत्रित करने लगी और दूसरी तरफ समय समय पर असुर सेना पर वाणों की वर्षा भी। युद्ध फिर से महाराज दशरथ के पक्ष में हो रहा था। पर अभी तो कैकेयी के प्रेम की अभूतपूर्व दास्तान लिखी जानी शेष थी।
महाराज दशरथ के रथ के पहिये को रथ से जोड़ने बाली कील निकल गयी। पहिया निकलने ही बाला था। महाराज दशरथ रथ से गिरने ही बाले थे। उसी समय महारानी कैकेयी ने अपनी बुद्धि, तत्परता और अपने प्रेम का परिचय देते हुए तुरंत रथ से उतरकर अपना दाहिना हाथ रथ के पहिये में कील के स्थान पर घुसा दिया। पहिया गिरा तो नहीं। पर महारानी कैकेयी का दाहिने हाथ की हड्डियों के अनेकों टुकड़ों में टूटने की आवाज आयी। रथ के आगे बढने के कारण हाथ से त्वचा उतर गयी। मांस फटकर रणभूमि में गिरने लगा। भूमि रक्त से गीली हो गयी। कैकेयी ने अंगुलियों से लेकर कंधे तक अपना दाहिना हाथ अपने पति के प्राणों की रक्षा में कुर्बान कर दिया। दाहिना हाथ जो किसी के भी सही तरह से जीवन निर्वाह का आधार होता है, कैकेयी ने अपने पति के लिये अर्पित कर दिया।
रण का वही परिणाम हुआ जो होना चाहिये। असुरों की सेना भाग गयी। देवों की विजय हुई। कैकेयी को अपने गोद में लिये महाराज दशरथ की आंखे सचमुच नम थीं। पता नहीं पुरुष अपनी भावनाओं को ठीक तरह से व्यक्त क्यों नहीं कर पाते। पर महाराज दशरथ कैकेयी के प्रेम को देख मन ही मन रो रहे थे। साथ ही कोई अदृश्य रूप से मौजूद महारानी कैकेयी के त्याग को देख आगे की भूमिका तैयार कर रहा था।
वह अदृश्य शक्ति जो जग का निर्माण करती है, पालन करती है तथा जो प्रलय के समय सृष्टि को खुद में समेट लेती है, जो भविष्य में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित होंगें, जो महारानी कैकेयी को अपनी माॅ से भी बढकर प्रेम करेंगें, जिनके उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिये कैकेयी अपयश को भी गले लगायेगी, जो नर लीला करते समय प्रत्येक वीर की वीरता को सम्मान देंगें, निश्चय कर चुकी थी कि रामावतार के समय भी माता कैकेयी पर प्रहार करने बाले इन सागर के उत्तरी तट के असुरों का वध किसी योद्धा की भांति नहीं, अपितु कीड़े मकोड़ों की भांति ही किया जायेगा। सागर के लिये संधान किया वाण इन्हीं पर लक्ष्य किया जायेगा। वह एक ही तीर इन सभी के नाश का कारण बनेगा। भविष्य में किसी भी पुस्तक में इनकी वीरता की कोई कहानी नहीं लिखी जायेगी।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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