कुमाता भाग १४ - पुरानी भूल
ईश्वर की भी लीला न्यारी है। एक तरफ देवों को आश्वासन दे रखा था कि वह दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित होंगें। वहीं न जाने क्यों देरी करते रहे। कह सकते हैं कि माता सुमित्रा और माता कैकेयी को भी अपनी नरलीला में स्थान देना था। पर माता कैकेयी के भी महाराज दशरथ के जीवन में आगमन के बाद भी अभी तक उनके अवतार का समय नहीं आया था। शायद अभी कुछ और शेष था। अनेकों बार मनुष्य से कुछ ऐसी भूल हो जाती है कि ईश्वर भी उस भूल का प्रायश्चित होने तक कुछ नहीं करते।
शायद अच्छाई और बुराई मन के विषय हैं। अनेकों बार राजधर्म निभाते समय राजा को अपने हृदय पर पत्थर रखते हुए ऐसे कर्म करने होते हैं, जिन्हें सही तो नहीं कहा जा सकता है। उचित और अनुचित का निर्णय करना कठिन होता है। अनुचित कृत्य में उचित मात्र इतना होता है कि वह अनुचित केवल प्रजा के हित की कामना से किया गया था। उस कृत्य को करने के बाद कितने ही दिन और रात आंसू बहाये थे। पर राजा का खुद का क्या सुख। राजा तो प्रजा के सुख से ही सुखी होता है और प्रजा के दुख से ही दुखी।
अयोध्या का राजमहल फिर भी बच्चों की किलकारियों की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रजा भविष्य के राजा की प्रतीक्षा कर रही थी। और महाराज दशरथ - अपने राजधर्म निभाते निभाते की गयी भूल पर चुपचाप आंसू बहा देते। इसमें उनका साथ देतीं केवल महारानी कौशल्या। महारानी सुमित्रा और कैकेयी दोनों ही उस रहस्य से सर्वथा अपरिचित थीं। वैसे अवध की प्रजा भी नहीं जानती थी कि खुद अवध नरेश और महारानी कौशल्या बहुत समय पूर्व ही उनके सुख की कामना से एक बहुत बड़ा त्याग कर चुके हैं। हाॅ, गुरुदेव वशिष्ठ के लिये कुछ भी अज्ञात नहीं था। अपने तपोबल से वह सब कुछ जानते थे। इसे ईश्वर का विधान मान शांत थे। चुपचाप ईश्वर की लीला देख रहे थे। हालांकि उन्हें भी उस क्षण की प्रतीक्षा थी जिसके लिये उन्होंने सूर्यवंश का पुरोहित बनना स्वीकार किया था।
अनेकों बार महाराज समझने लगते कि अब संतान प्राप्ति उनके भाग्य में नहीं है। ईश्वर की निष्ठुरता अकारण तो नहीं है।
फिर श्रवण कुमार के पिता का श्राप ही उनके मनोबल को बढाता। उनकी मृत्यु का विधान ही पुत्र का वियोग होगा। फिर पुत्र की प्राप्ति तो निश्चित ही होगी। तपस्वियों का आशीर्वाद या श्राप कुछ भी असत्य तो नहीं होता।
आखिर एक दिन मन की तड़प इस तरह उठी कि सीधा गुरुदेव वशिष्ठ के पास पहुंच गये। अपने मुंह से अपनी भूल को स्वीकार करने। अपने मुंह से राजधर्म के निर्वहन के लिये किये पाप को बताने। पर अपने मुख से अपनी भूल बताना आसान कब होता है। ऐसा कर न सके। पर गुरुदेव के चरण पकड़कर रोने लगे। संतान प्राप्ति की राह पूछने लगे। आखिर गुरुदेव ने पहले भी रघुकुल के राजाओं को राह दिखाई थी। क्या मैं ही रघुकुल में आखरी रहूंगा। मेरे बाद पितरों का तर्पण कौन करेगा।
गुरुदेव ने राह तो दिखाई। पर वह राह भी आसान न थी। श्रृंगी मुनि जो एक युवा तपस्वी हैं वही महाराज दशरथ को संतान की प्राप्ति करा सकते हैं। पर यह आसान तो कदापि नहीं है। मुनि श्रृंगी को मनाना कोई आसान काम नहीं है।
संतान की चाहत में मनुष्य बड़े से बड़ा तप कर लेता है। महाराज दिलीप ने भी वर्षों नंदिनी गौ की सेवा की थी। महर्षि श्रंगी को मनाना निश्चित कठिन होगा पर असंभव तो नहीं। यदि मैं जो भारत का चक्रवर्ती सम्राट हूं, खुद का अहम त्यागकर मुनि श्रंगी की नित्य सेवा करूं तो भला वे कब तक मेरी अवहेलना करेंगें।
चक्रवर्ती सम्राट दशरथ चल दिये उस महान तपस्वी श्रंगी मुनि की सेवा करने। पति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती आयीं तीनों रानियां भी साथ थीं।
मुनि श्रंगी को संतुष्ट नहीं होना था तो वह संतुष्ट नहीं हुए। महाराज और रानियों की सेवा भी उन्होंने अस्वीकार कर दी। बहुत रूठे स्वर से उन्हें वापस जाने को बोल दिया।
केवल मुनि श्रंगी ही उन्हें संतान प्रदान कर सकते हैं। और मुनि श्रंगी की यह बेरुखी। पता नहीं क्या रहस्य है कि गुरुदेव ने इन्हीं के पास भेजा है। फिर तो अब संतान की प्राप्ति होगी ही नहीं। महाराज श्रंगी मुनि के चरणों में गिर गये।
" हे श्रेष्ठ तपस्वी। मुझपर कृपा करें। मेरी सेवा स्वीकार करें। मेरी भूल मुझे स्पष्ट बतायें।"
एक चक्रवर्ती सम्राट संतान की चाहत में एक तपस्वी के समक्ष गिड़गिड़ा रहा था।
" हाॅ भूल ही तो की है। आप संतानहीन हो ही कब। सत्य है न महाराज। आपकी और देवी कौशल्या की पुत्री कहाॅ है। क्या ज्ञात है कि वह कैसी है। कभी उसके सुख में खुशियां मनायी हैं। कभी उसके दुख में आंखों से नीर बहाये हैं। कभी लगता नहीं कि बेटी को पालने की खुशी आपने छोड़ दी है। आप संतानहीन नहीं हैं। आपको संतान की इच्छा भी शायद नहीं है। पुत्र चाहते हैं आप। वंश को आगे बढाने बाला ही चाहते हैं। पर वंश भला कैसे नर ही आगे बढा सकता है। नर और नारी दोनों ईश्वर की रचना हैं। फिर नारी की अवहेलना भला कैसे खुशियां देगी।
सेवा। मेरी नहीं.... ।जाओ राजन। तलाशिये अपनी पुत्री को। उसी की सेवा आपको पुत्र प्रदान करायेगी। जब तक आपकी वह पुत्री खुद मुझसे नहीं कहेगी, आपकी सेवा मुझे स्वीकार नहीं। जाइये। ढूंढिये अपनी पुत्री को। उसी के साथ वापस आना। अन्यथा नहीं। "
महाराज दशरथ और महारानी कौशल्या सर झुका बैठे थे। वही महारानी सुमित्रा और कैकेयी इस सत्य को सुन आश्चर्य में डूब रही थीं। यह क्या रहस्य है। महाराज और महारानी ऐसे निर्दयी तो नहीं हो सकते कि अपनी कन्या का ही परित्याग कर दें। पहली संतान तो वैसे भी बहुत प्रिय होती है। पर महाराज और महारानी का झुका सर यही स्पष्ट कर रहा है कि वे निःसंतान नहीं हैं। उन्होंने अपनी पुत्री को त्याग दिया था। पर क्या इसीलिये कि वह पुत्री थी। शायद यह पूर्ण सत्य तो नहीं है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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