कहानी आंसुओं की भाग १०
पहाड़ों की तलहटी में बसे एक गांव में एक लड़का पिछले आठ महीनों से रहा रहा है। गांव के गड़रियों को वह मृतपाय अवस्था में मिला था। वैसे कपड़ों से वह आर्मी का जवान लग रहा था। पर भोले भाले गांव बाले थोड़ा डरपोक भी थे। उसे आर्मी के कैंप में न ले जाकर अपने साथ ले गये।
कितने महीने उसकी देखभाल की। उसका इलाज किया। गांव का ही एक वैद्य उसकी चिकित्सा करता था। कई दिनों बाद उसे होश आया। पर चोट के कारण वह अपनी याददाश्त खो चुका था। पैरों में एक लचक जन्म ले चुकी थी।
गांव क्या था। बस डेढ दो सौ लोगों का एक समूह। मुश्किल हालातों में रहने के अभ्यासी। सच कहें तो खानाबदोश। जाड़ों में जब वर्फ पड़ने लगती तो पहाड़ों से बहुत नीचे उतर आते। मवेशी पालना, जंगली पेड़ों से फल तोड़ कर लाना, दुर्लभ औषधियाँ ढूंढना, यही इन लोगों की जीविका थी। भले ही सभ्य समाज इन्हें जंगली समझे पर इनके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती है । एक असाध्य युवक इन्हीं जंगली समझे जाते लोगों के औषधि ज्ञान से आज स्वस्थ है। यही इनके चिकित्सकीय कुशलता का प्रमाण है।
दुश्यंत होश में आ गया और नहीं भी। उसे कुछ याद नहीं आ रहा। वह कौन है। कहाॅ से आया है। जिन लोगों के साथ वह रह रहा है, उनकी बोली भी पूरी तरह समझी नहीं जाती। इनका ज्यादातर भोजन भी अपरिचित जैसा लगता है।
" कौन हू मैं। यहाॅ का तो नहीं। मेरी नाक भी इन सबसे अलग है। शारीरिक गठन भी अलग है। मेरी जुबान भी कुछ अलग ही है। पर कुछ याद नहीं आ रहा।"
दुश्यंत बुदबुदाने लगा। कमरे में एक लड़की आयी। गौर वर्ण, जरा ठिगना शरीर, पर रूप में किसी अप्सरा सी लगती।
" आ जायेगा याद। अभी दिमाग पर जोर न दो। धीरे धीरे... ।"
दुश्यंत शव्दों को जोड़ने लगा। लड़की इशारे में उसे बताने लगी। वह घायल अवस्था में मिला था। कई दिनों बाद उसे होश आया है।
वह लड़की जिसका नाम मामो था या ऐसा दुश्यंत को लगता, उसी वैद्य जी की बेटी थी। अभी युवावस्था की दहलीज पर खड़ी थी।
दुश्यंत उनकी भाषा कुछ कुछ समझने लगा। वहीं रहता रहा।
मामो के मन में उस अज्ञात युवक के लिये कुछ दया थी, कुछ समर्पण था। या सच कहो तो उससे प्रेम करने लगी।
पहचान के लिये एक नाम जरूरी है। दुश्यंत का नाम साहब पड़ गया। खानाबदोश समझ गये कि यह युवक सेना में कोई साहब ही है। पर दुश्यंत को कुछ पता नहीं।
खानाबदोश मामो के मन में उफनते हुए प्रेम को देख रहे थे। बेटी का प्रेम कर्तव्य पर हावी हो गया। दुश्यंत के फौजी कपड़े छिपा कर नष्ट कर दिये थे। पर उसकी जेबों में रखी चिट्ठियां मामो के पास थीं। चाह कर भी एक प्रेमिका किसी अन्य प्रेमिका के प्रेम के प्रमाण नष्ट नहीं कर पायी।
मामो का साहब के नजदीक पहुंचकर उसपर रूप माधुरी डालने का प्रयास सफल होता कि उससे पूर्व उसके अवचेतन मन में किसी अन्य की तस्वीर उभरती। दुश्यंत उस तस्वीर को पहचान तो न पाता पर इतना समझ जाता कि कोई अन्य है उसके जीवन में। कोई प्रेम की साधिका उसकी प्रतीक्षा कर रही है। फिर तमाम कोशिशों के बाद भी मामो का प्रेम परवान न चढ पाया।
चाहत से शुरू हुआ मामो का प्रेम सचमुच के उस प्रेम में बदल गया जहाँ केवल और केवल बलिदान शेष रह जाता है। जहाँ खुद का बजूद खत्म हो जाता है और बचता है तो केवल और केवल महबूब का हित। महबूब के प्रेम में मिले आंसू ही सचमुच उसके जीवन का आधार बन जाते हैं।
" साहब। आपको कुछ देती हूं। मेने आपसे छिपाकर रखा था। अब कोई मतलब नहीं है। किसी का प्रेम मिटाकर प्रेम मिला तो क्या मिला। किसी के आंसुओं से प्रेम पा भी लिया तो क्या पाया। प्रेम तो वही है जो बहुत दूर प्रेमी को आभास करा दे कि कोई उसकी याद में आंसू बहा रहा है।"
मामो ने दुश्यंत को सारी चिट्ठियां पकड़ा दीं। अब दुश्यंत को कुछ कुछ याद आने लगा। जो हर रोज अभी भी उसके स्वप्न में आती थी, वही सुनंदा की चिट्ठियां सुप्त स्मृतियों को जगाने लगी। अभी मौसम खराब है। गर्मियां आने में कुछ महीने शेष है। घर बालों से बात करना संभव नहीं है क्योंकि अभी तक पूरी पूरी याद वापस नहीं आयी है। इस कबीले में फोन जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं। दुश्यंत को अभी आंशिक ही याद आया है। तो जाड़ों के बाद आर्मी कैंप से ही उसकी सही जानकारी मिलेगी। तभी वह घर पहुच पायेगा।
गर्मियों के आगमन के कुछ महीनों में मामो ने दुश्यंत के सामने अपने आंसुओं को रोक रखा। पर अकेले में जरूर रोती। जाड़ों की विदाई के साथ ही आखिर दुश्यंत की विदाई का समय भी आ गया। मामो खुद दुश्यंत को एक आर्मी कैंप तक छोड़ आयी। वहां दुश्यंत के बारे में छानवीन की जा रही है। दूसरे कैंपों को भी उसकी सूचना भेजी जा रही है।
आज मामो चाहकर भी अपने आंसुओं को रोक नहीं पा रही है। आज पहली बार दुश्यंत को मामो के प्रेम का अनुभव हुआ। वह यदि चाहती तो क्या कभी दुश्यंत अपनी पूर्व जिंदगी में वापस आ सकता था। सही बात तो यह है कि यदि अभी भी मामो कह दे कि जब याददाश्त नहीं थी, उस समय उनका विवाह हुआ था तो भी दुश्यंत कभी भी अपनी प्रेमिका को पा नहीं सकता है। प्रेम सचमुच बलिदान देता है। और मामो के बलिदान को स्मरण कर आज दुश्यंत के हाथ भी उसकी वंदना में उठ गये हैं। निश्चित ही दुश्यंत अपनी पूर्व जिंदगी में अपना प्रेम पा ले पर क्या संभव है कि वह मामो को भूल पाये। शायद नहीं क्योंकि मामो भी उसके प्रेम में आंसू बहा रही होगी। कहानी आंसुओं की शुरू होकर कभी समाप्त नहीं होती। बस पात्र बदलती रहती है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
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