शिव महिमा


मस्तक पर है चन्द्र विराजे गले नाग लिपटाते है,
जटा बीच सोहति है गंगे तभी तो वो शिव कहलाते है।

अमंगल वस्तु को कर धारण जो मंगल के धाम कहाते है,
कौड़ी नही खजाने में फिर भी त्रिलोकी नाथ कहलाते है।
मलते तन पर राख अपावन फिर भी पतित पावन कहाते है,
काम और क्रोध को जीतने वाले तभी तो वो शिव कहलाते है।

करते है बूढ़े बैल सवारी  डमरू  मधुर बजाते है,
संग विराजत भूतों की टोली जो इनके मन भाते है।
बाम  भाग में सदा  बिराजति गौरी नाथ कहते है।
करते सदा प्रेम प्रकृति से तभी तो वो शिव कहलाते है।

नही चाहते पुष्प सुवाषित आंक धतूरा भाते है,
करते है नंदी की सवारी तन मृगचर्म सुहाते  है।
गल मुंडों की माला पहने नील कंठ कहलाते है,
राम नाम का जाप है करते तभी तो वो शिव कहलाते है।

जटा जूट को बांधने वाले प्रेम का पाठ पढ़ाते है,
मृत शरीर ले मातु सती का विरह योग में जलते है।
वरन करी गिरिराज कुमारी ने गौरी नाथ कहाते है,
हुए अर्धनारीश्वर फिर वो तभी तो शिव कहलाते है।

भक्ति भाव से जो कोई ध्याबे मनबांछित फल देते है,
नही चाहिए छप्पन व्यंजन भांग का भोग लगाते है,
मन मानस में सदा बिराजौ भक्त अरदास लगाते है,
होते तुरंत प्रसन्न भक्तों से तभी तो वो शिव कहलाते है।

शीला द्विवेदी "अक्षरा"

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