सत्तो अंतिम भाग



  डाक्टरी की पढाई करते समय सत्तो ने जो मेहनत की, उसपर जितना लिखा जाये, कम ही है। अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर वह हमेशा शिक्षकों की चहेती रही। अपने नम्र व्यवहार से सभी सहपाठियों के मध्य सम्मानित होती रही। हमेशा सत्तो का स्थान क्लास में टाप पर रहता। प्रयोगात्मक में तो उसके बराबर कोई नहीं टिकता। पर सत्तो का पढाई में होशियार होना उसकी सबसे बड़ी योग्यता न थी। वह जानी जाती थी अपने सेवा भाव के कारण। प्रशिक्षण के दौरान जूनियर डाक्टर के रूप में कार्य करते हुए वह मरीजों से ऐसा भावनात्मक रिश्ता बना लेती कि ज्यादातर मरीज उसे पसंद करने लगते। सत्तो गंभीर से गंभीर मरीजों को हौसले की वह दवा दे देती कि उनमें भी जीने की इच्छा जग जाती। वे मरीज भी बीमारी से दो हाथ करने को तैयार हो जाते। अधिकांश मरीज मृत्यु से जंग जीतने लगे। 

  एम बी बी एस करने के बाद सत्तो ने स्त्री रोग में विशेषज्ञता हासिल करने के लिये आगे की पढाई की। वियोग का यह समय फौलाद सिंह ने संगीत की साधना में गुजारा। प्रेम की ताकत के बलबूते पर फौलाद सिंह एक सफल संगीतज्ञ बन गया। 

  सत्तो के पास अनेकों बड़े अस्पतालों से नौकरी के ओफर आये पर सत्तो ने उन्हें ठुकरा दिया। वह अपना लक्ष्य जानती थी। बड़े बड़े पैकेज को छोड़कर डाक्टर सत्यवती अपने गांव में ही क्लीनिक चलाने लगी। जबकि नजदीकी कस्बे में भी उसके बराबर पढी डाक्टर कोई न थी। धन कमाना सत्तो का उद्देश्य न था। उद्देश्य था समाज की सेवा करना। देहाती इलाके में चिकित्सा की व्यवस्था करना। इसमें उसका साथ दे रहे थे उसके ससुर ठाकुर भानुसिंह और उसके पति फौलाद सिंह। 

   चिकित्सा सुविधा प्रदान करने के लिये धन की आवश्यकता होती है। ठाकुर साहब ने अपने स्तर से मदद की। सत्तो भी धनियों के इलाज के तो पैसे लेती ही थी। गरीबों का इलाज लगभग निःशुल्क करती थी। विकास के लिये आवश्यक है कि सुविधाओं का दुरुपयोग न हो। आजकल तो गरीबों की सुविधा को भी सामर्थ्यवान लूट रहे हैं। 

   भगवान सूर्य से ज्यादा दयालु भला कौन होगा। भगवान सूर्य ही समुद्र के जल को भाप बनाकर सभी जगह बरसातें हैं। इसीलिये संसार खुशहाल होता है। पर यदि भगवान सूर्य लेना बिलकुल भूल जायें तो निश्चित ही वह संसार का उपकार नहीं कर सकते। समुद्र जैसे धनियों से लेना भी उतना ही आवश्यक है जितना निर्धनों को देना। 

  कुछ सालों की कड़ी मेहनत के बाद गांव में डाक्टर सत्यवती का बड़ा अस्पताल था। जिसमें आस पास के मरीजों का इलाज होता था। दूर दूर से योग्य डाक्टर  सत्यवती के अस्पताल में अपनी सेवा देने आते। देहात की अनेकों बहू बेटियां भी नर्स का कोर्स कर सत्यवती के अस्पताल में अपनी सेवा देने लगीं। 

  सत्यवती और फौलाद सिंह के प्रेम का प्रमाण एक बेटी उनके जीवन में आयी। जिसका नाम मेनका रखा गया। बेटे की आशा में अनेकों संतान करने बाले लोगों के समक्ष सत्तो और फोलाद सिंह प्रेरणा बन गये। एक बेटी भी बेटा बन सकती है। सत्तो भी तो एक बेटी ही है। वह किस बात में किसी बेटे से कम है। 

समाप्त
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'

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