तस्करी


वो ज़माने लद गए, जब मानवता ज़िन्दा थी।
अब जीते जी इंसान, किसी काम का नहीं।।

बैठें हैं कई आदमख़ोर, तस्करी की कश्ती में।
बेच खाते है अंगों को, अमीरी की बस्ती में।।

इनको फ़र्क़ नही जीने, या जीते जी मारने वाले से।
ये बस दाम लगते है, महँगे खरीदने वाले से।।

अस्पतालों के आड़ में, ये व्यापार चलते हैं।
किसी की किडनी, लिवर, तो किसी का दिल बेच खाते है।।

हज़ारो की कीमत को, ये करोड़ो तक ले जाते हैं।
गरीब को हो ज़रूरत, तो खाली हाथ दिखाते हैं।।

फ़रेब और चोरो की दुनिया के, ये बादशाह कहलाते है।
ऑपरेशन की आड़ में, ये ऑर्गन फेल बताते हैं।।

हेरा फ़ेरी अंगों की करते, पैसा खूब कमाते है।
बड़े बड़े हस्तियों से मिलकर, ये तस्करी की दुनिया चलाते है।।

~राधिका सोलंकी (गाज़ियाबाद)

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