"हे! देश के अग्निवीरों"


कहां जा रहे हो, हे देश के अग्निवीरों,
तनिक ठहरो! और झांकों अपने अंतर्मन में,
तुम्हीं हो शक्ति पुंज, इस राष्ट्र के निर्माण के,
फिर क्यों भटक रहे हो, पतित गलियों में।

यह देश देख रहा है अब तुम्हारी तरफ,
तुम ही बनोगे आजाद, शेखर और भगत,
जागो, आगे बढ़ो, बनो देश का संबल,
फिर क्यों सो रहे हो, अब तक चिरनिद्रा में।

देश के निर्माता हो, विनाश तेरा कार्य नहीं,
मातृभूमि का गौरव बनो, राह भूला राही नहीं,
राम, कृष्ण, बुद्ध की भूमि के हे वीर सपूतों,
फिर क्यों भूल रहे हो खुद को पहचानने में।

तुम चाहो तो मोड़ दो धारा नदी का,
लड़ो आलस दंभ से विवेकानंद हो इस सदी का,
हां, तुम कर सकते हो भारत का नवनिर्माण,
फिर क्यों उलझ रहे हो, व्यर्थ की बातों में।

उखाड़ फेंको उस चौसर को,  जो भविष्य दांव पर लगाती है,
रुख मोड़ दो उस हवा का, जो साथ बहा ले जाती है,
सही दिशा दो उर्जा को, कि फैले चहूं ओर सुरभि,
फिर क्यूं जला रहे हो खुद को, अंगार लिये हाथों में।


स्वरचित रचना
रंजना लता
समस्तीपुर, बिहार

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