समाज के पिशाच
इंसान के भेश में, हैं ये पिशाच।
न करते दया किसी पर, न है करते विश्वास।।
देखो ज़रा संभल जाओ, कही हो न तुम्हारे आस पास।
पहचान नही सकते इनको, ये हो सकते है तुम्हारे खास।।
मानवता की कब्र खोदे, ये कातिल कसाई हैं।
हो सकते है ये कोई ग्राहक, जिसने प्यास खून से बुझाई है।।
ये नही छोड़ते किसी कीमत पर, ये तो अंधे व्यापारी हैं।
ये मांस नोचते फिरते है, इन्होंने कसम शैतान की खाई है।।
ये बन के रिश्तेदार, पड़ोसी, तुमसे जोल बढ़ाते हैं।
फिर नफरत के खंजर लेकर, तुम्हारी बली चढ़ाते हैं।।
ये किसी की टांग चीरते, अंगों की करते कटाई हैं।
रोज़ी रोटी फूँक डालते, दंगो की करते अगुवाई हैं।।
ये झट से गायब हो जाते, न खोज इनकी हो पाई है।
आंख मूंदे कानून है बैठा, तो सबकी शामत आई है।।
सारेआम ये बंदूक उठाते, पत्थरों की बारिश आई है।
नही बख्शते बच्चे बूढे, औरत की इज़्ज़त लुटाई है।।
~राधिका सोलंकी (गाज़ियाबाद)
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