इंकलाब ज़िंदाबाद : भगत सिंह भाग ६
विद्यार्थी और राजनीति -
इस महत्वपूर्ण राजनीतिक मसले पर यह लेख जुलाई ,1928 में 'किरती' में छपा था।उन दिनों अनेक नेता विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे ,जिनके जवाब में यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है ।यह लेख सांप्रदायिक विचारों में छपा था ,और संभवतः भगत सिंह का लिखा हुआ है।
इस बात का बड़ा भारी सॉरी सुना जा रहा था कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी )की राजनीति क्या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न ले। पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है ।विद्यार्थी से कॉलेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की तर्क पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वह पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे। आगे हमारा दुर्भाग्य के लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर जो अब शिक्षा मंत्री हैं स्कूलों कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पॉलिटिक्स में हिस्सा ना ले। कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी सप्ताह मनाया जा रहा था। वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वर चंद्र नंदा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ (पॉलिटिकली बैकवर्ड )कहा जाता है। इसका क्या कारण है ? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं ?क्या पंजाब में मुसीबतें कम झेली है ? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे हैं? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्द है आज पंजाब कौंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है और विधार्थी युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब भी पढ़ कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे बढ़ते हैं लेकिन वह ऐसी कच्ची कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवा कोई चारा नहीं होता। जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है उन्हें आज अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है उन्हें अपना पूरा ध्यान उस और लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उच्च शिक्षा में शामिल नहीं यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ कलर की करने के लिए ही हासिल की जाए ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी कहते हैं "काका तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर लेकिन कोई व्यवहारिक हिस्सा ना लो तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमंद साबित होगी"।
बात बड़ी सुंदर लगती है लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि 1 दिन विद्यार्थी एक पुस्तक अप्रैल दूरियां प्रिंस को बुकिंग नौजवानों के नाम अपील प्रिंस क्रोपोटकिन पढ़ रहा था एक प्रोफेसर साहब कहने लगी यह कौन सी पुस्तक है और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है लड़का बोल पड़ा प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। अर्थशास्त्र के विद्यमान थे। इस नाम से परिचित होना प्रत्यय प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था। प्रोफेसर की योग्यता पर लड़का हंस भी पड़ा। और उसने फिर कहा कि यह रूसी सज्जन थे। बस ' रूसी ' कहर टूट पड़ा! प्रोफेशन ने कहा " तुम बोलशेविकी हो , क्योंकि तुम पॉलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो "।
देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में हुए नौजवान क्या सीख सकते हैं?,
दूसरी बात यह है कि व्यवहारिक राजनीति क्या होती हैं? महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यवहारिक राजनीतिक, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वह पॉलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं?,सरकार और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पॉलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं ? कहा जाएगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरे से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशियां नाराजगी का हुआ। क्या विद्यार्थियों को जन्म दे ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करने वाले वफादार नहीं बल्कि गद्दार हैं , इंसान नहीं ,पशु हैं, पेट के गुलाम है। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।
सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश सेवकों की जरूरत है जो तन मन धन देश पर अर्पित कर दे और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दे। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझट में फंसे सनाय लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे ? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में ना फसा हो और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यवहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और जोग्राफी का ही परीक्षा के पदों के लिए घोंटा नहीं लगाया हो।
क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी ? तब हमारे उपदेशक कहां थे? जो उनसे कहते जाओ जाकर शिक्षा हासिल करो। आज नेशनल कॉलेज अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है। सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वह यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की जरूरत है। वह पढ़े जरूर पढ़ें साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़े और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें। वरना बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता ।
क्रमशः
गौरी तिवारी
भागलपुर बिहार
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