बेजुबानों कि बस्ती
मज़हबो कि बस्ती, हुक्मरानों कि बस्ती
गुम सी हुई है लगता अब इंसानों कि बस्ती
दिल तोड़ने को फ़क़त अपने ही काफी है
मुझे मुकद्दर से मिली है ये तानों कि बस्ती
इक जाम है जो हर धर्म एक कर देता है
देखना हो तो देखिए मयखानों कि बस्ती
मेरे गांव में मुझे हर घर,घर नज़र आता था
शहरों में तो दिखती फ़क़त मकानों कि बस्ती
दूसरों पर उंगलियां उठाने वालों जरा सुनों
क्या झांकी कभी खुद के गिरेबानों कि बस्ती
सुनो प्रीत यहां कोई न समझेगा तेरे जज़्बात
है ये दयार ए संगदिल ए बेजुबानों कि बस्ती
-प्रीती वर्मा✍️✍️
(कानपुर),
Comments
Post a Comment