कशिश

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कुछ सवाल सुलगते से लगे
उसकी आँखों में,
शायद....
कुछ कहना था उसे
आखिरी लम्हों में।

अनकहा बोझ 
जो उसके मन पर था
न जाने क्यों ....
जाते-जाते कह न सका।

मैं जानता हूँ...
जो रिश्ता कभी मरा है,
न जाने क्यों
दिल के किसी कोने में
आज तक सुलग रहा है।

शायद उसके वायदे सुलग रहे हैं
या मेरी तन्हाईयाँ...
बस एक धुन्ध है
हमारे दरम्यां।

फ़िज़ाओं में घुला है
उसका अल्हड़पन,
जैसे एक दूजे को ढूंढता हो
वाबरा मन।

हर तरफ एक अनदेखी
दीवार है
एक नदी के इस पार है
एक उस पर है।

एक कशिश....
जिसे आंखों से बहना था,
शायद उसे आखिरी लम्हों में
कुछ कहना था।

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डॉ0 अजीत खरे
        प्राचार्य
एम0 बी0 एल0 डी0 महाविद्यालय
स्वरचित व मौलिक
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