कागज के जहाज
बहुत बनाते थे बचपन में आड़े तिरछे रंग बिरंगे जहाज,
कभी क्लाश में तो कभी घर के आंगन में उड़ाते थे जहाज।
मासूमियत भरे मन में अनेकों कल्पनाएं करते थे,
कभी जमीं पर चलते थे तो कभी आसमाँ की सैर करते थे।
बीत गया बचपन उम्र का एक नया पड़ाव आया,
इश्क की चाहत से मेरे मन ने संगीत का स्वर गुनगुनाया।
कहना तो बहुत कुछ चाहती थी पे लफ़्जों ने कह न पाया,
वहाँ पर फिर मैंने इक कागज का जहाज उड़ाया।
ले गया है वो मेरा सन्देश प्रियतम के पास,
इकरार हुआ फिर नैनों में पूरी हुई आस।
कल्पनाओं के जहाज में होकर सवार चल पड़ी इश्क की गली,
अपने सपनों को करने पूरा मैं उन्मुक्त गगन में उड़ चली।
कागज के उन रंगबिरंगे जहाजों ने मुझे मेरी तकदीर से मिलाया,
कितना खूबसूरत है ये कल्पनाओं का आसमाँ मुझे दिखलाया।।
शीला द्विवेदी "अक्षरा"
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