डायरी
सखी सहेली अलबेली
ज़िंदगी बनती है पहेली
सन्नाटों को है चीरती
तन्हाइयों को समेटती
परतों को खोलती डायरी
लबों पर होती है मुस्कान
मन में होता अंतर्द्वंद का भान
वक़्त की स्याही सुलगते शब्द
खुशी ग़म का करते हुए आलिंगन
जीवन को अपना बना जाती डायरी
बीतते दिन रात जब कहते कहानी
जैसे पथ पर फैल गई हो निशानी
उलझते रहे जाने किस कशमकश में
मुखौटे को उतार मुड़ कर देखा पीछे
हर ताले की कुंजी सी दिखी है डायरी
किस तलाश में भटक रहे थे आजतलक
मुक्कमल हुई हर तलाश खुद पर आकर
तमाशाई भीड़ छुपी थी जाने कहाँ कहाँ
मन्द मुस्कान ने यादों की परचम जो हटाया
हकीकत से रूबरू कराती दिखी डायरी
आरती झा(स्वरचित व मौलिक)
दिल्ली
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