प्रेम'
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प्रेम
प्रतिक्षा रत
निहारता है
राहें,
संवरता है
बिखरकर,
ख़ामोश रहकर
होम देता है
उम्र की सांख्यिकी
स्मृतियों की
आग में,
विरक्ति
नहीं रखती मायने
खुशियां
और गम,
सिर्फ और सिर्फ
आंखों में रहता है
'वो'
इस उम्मीद में
एक दिन तो
लौटकर
थाम लेगा हाथ
सन्नाटे की प्राचीर
तोड़कर,
और डूबता
जाता है
'प्रेम'
कभी उसमें
कभी खुद में !
हरिचरण अहरवाल 'निर्दोष'
कोटा, राजस्थान
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