कविता
हा मैं कविता लिख रही थी।
हा मैं कविता लिख रही थी।।
बैठी थी घर की छत पर ,
आसमाँ को देख कर तारे गिन रही थी।
अतीत और वर्तमान के ख्यालों से परे,
भविष्य की सुनहरी कल्पना कर रही थी।।
हा मैं कबिता........
अचानक ही मन में भाव आया,
शब्द और व्याकरण का नया रूप पाया।
अलंकारो की परिभाषा में,
शब्दों के मोती पिरो रही रही थी।।
हा मैं कबिता............
जो अश्रु बन कर नेत्र से,
निकले करुण रस है वही।
प्रेम और श्रंगार रस भी,
है हृदय के भाव ही ।।
कल्पनाओं की लड़ी ये,
पन्नो पर उतर रही थी।।
हा मैं कबिता लिख रही थी।
हा मैं कबिता लिख रही थी।।
(स्वरचित एवं मौलिक)
शीला द्विवेदी
उरई जालौन
उत्तर प्रदेश
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